योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 28

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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7. पुराणों की प्राचीनता


श्रीकृष्ण के नाम से जितनी घटनाएँ जनसाधारण में प्रचलित हैं उन सबके कारण पुराण हैं और हिन्दू धर्म ने इन्हें उनके ही प्रमाण के अनुसार सच्चा मान लिया है। इसलिए सबसे पहले यह अनुसन्धान करना उचित होगा कि इन पुराणों को कहाँ तक ऐतिहासिक होने का गौरव प्राप्त है या उनके लेख कहाँ तक विश्वास-योग्य हैं?

(अ) प्राचीन आर्य जाति ऐतिहासिक विद्या से अनभिज्ञ नहीं थी

अपनी सम्मति स्पष्ट रूप से प्रकट करने से पूर्व एक बात कह देना आवश्यक है। हम इस बात के मानने वाले नहीं हैं कि प्राचीन काल में यद्यपि आर्य जाति विद्या, सभ्यता और दर्शन-शास्त्र में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी और सब शिल्प विद्या आदि का वर्णन संस्कृत साहित्य में अब तक पाया जाता है, परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी वह ऐतिहासिक विद्या से पूर्ण अनभिज्ञ थी और उसमें न इतिहास पढ़ने की रुचि थी और न लिखने की परिपाटी।

वास्तविक बात यह है कि संस्कृत साहित्य की वर्तमान दशा को देखकर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन आर्य लोग अमुक-अमुक विद्या और शास्त्र में निपुण थे, पर निर्णयपूर्वक यह नहीं कह सकते कि वे उनने अतिरिक्त अमुक विद्या से निरे अनभिज्ञ थे। प्राचीन आर्य सभ्यता को इतना अधिक समय व्यतीत हो गया है कि उसका यथार्थ अनुमान करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। फिर इसी अन्तर में यहाँ बहुत-से परिवर्तन हुए हैं इसलिए किसी विद्या-विशेष के ग्रंथों के न मिलने से यह परिणाम निकाल लेना कि पुराने आर्य लोग उस विद्या से अनभिज्ञ थे, युक्तिसंगत नहीं। परमेश्वर जाने कितने अमूल्य रत्न पुरानी इमारतों के खंडहरों में दबे पड़े हैं और कितने तो भूमि में ऐसे समा गये हैं कि अब उनके अवशेषों के रूप में दर्शन होना दुर्लभ है और शायद अभी बहुत-से ऐसे भी हैं जो ब्राह्मणों के बस्तों में पड़े सड़ रहे हैं। उन बेचारों को यह भी ज्ञात नहीं कि इन फटे-पुराने जीर्ण ग्रंथों में विद्यमान कैसे उच्चतम भाव नष्ट हो रहे हैं, जिनको जानने के लिए आधुनिक शिक्षित संसार लाखों रुपये खर्च करने के लिए उद्यत है।

प्राचीन आर्य सभ्यता के विषय में अनुसंधान आरंभ हो गया है और लोग इन सब रत्नों को खोदकर निकाल रहे हैं। ऐसी अवस्था में निर्णय सहित यह कहना असम्भव प्रतीत होता है कि प्राचीन आर्य जाति अमूम विद्या से अनभिज्ञ थी। इसलिए हम पुनः यही कहते हैं कि वर्तमान साहित्य को देखकर कभी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि प्राचीन आर्य इतिहास विद्या से अनभिज्ञ थे। हमारे साहित्य में अभी ऐसे प्रमाण मौजूद हैं जिनमें यह परिणाम निकाल सकते हैं कि प्राचीन समय में इतिहास का पढ़ना और लिखना विशेष रूप से गौरव की दृष्टि से देखा जाता था और विद्यारसिकों की एक विशेष मण्डली का यही काम था कि राजा और महाराजाओं के दरबार में प्राचीन कथाओं को सुनाया करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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