योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पच्चीसवाँ अध्याय
कृष्ण के दूतत्त्व का अन्त
"मैं सदा परमात्मा से यही वन्दना करती आई हूँ कि वह तेरे आत्मा को महान बनावे और तुझे वीरता और पुरुषार्थ प्रदान करे।" "देवता जब प्रसन्न होते हैं तो आयुष, धन और संतान की वृद्धि करते हैं। माता-पिता की सदा यही इच्छा होती है कि उनकी संतान विद्वान हो, दानी हो और प्रजापालक हो। इसलिए तेरा कर्त्तव्य है कि जिस वर्ण में तेरा जन्म हुआ है उसके धर्म का पालन कर। हे युधिष्ठिर, दान लेना ब्राह्मण का काम है तेरा काम नहीं। तू क्षत्रिय है। तेरा धर्म है कि तू अपने बाहुबल से विपत्ति काल में दूसरों की सहायता करे। इसलिए अब विलम्ब क्यों करता है, क्यों अपने बाहुबल से अपना राजपाट नहीं लौटा लेता। कैसे दुख की बात है कि तुझे जन्म देकर भी मैं दूसरों का दिया हुआ अन्न खाऊँ। युधिष्ठिर! तू क्यों अपने पूर्वजों के यश और कीर्ति में बट्टा लगाता है। उठ! वीरों की तरह युद्ध कर और धर्म-मर्यादा को छोड़कर भाइयों सहित पाप का भागी न बन।" इसी तरह के संदेश कुन्ती ने भीम और अर्जुन के लिए भी दिये और कृष्ण को प्यार देकर विदा किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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