यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमगीता मनुस्मृति है और भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार गीता ही धर्मशास्त्र है। अन्य कोई शास्त्र नहीं, कोई अन्य स्मृति नहीं है। समाज में प्रचलित अनेकानेक स्मृतियाँ गीता के विस्मृत हो जाने का दुष्परिणाम हैं। स्मृतियाँ कतिपय राजाओं के संरक्ष्ज्ञण में प्रशासन चलाने के लिये लिखी गयीं, जिनसे समाज में ऊँच-नीच की दीवारें सृजित हो गयीं। मनु के नाम पर प्रचारित तथा कथित मनुस्मृति में मनुकालीन वातावरण का चित्रण नहीं है। मूल मनुस्मृति गीता एक परमात्मा को ही सत्य मानती है, उसमें विलय दिलाती है; किन्तु वर्तमान काल में प्रचलित लगभग 164 स्मृतियाँ परमात्मा का नाम तक नहीं लेतीं, न परमात्मा की प्राप्ति के उपायों पर प्रकाश डालती हैं। वे केवल स्वर्ग के आरक्षण तक ही सीमित रहकर ‘न अस्ति’-जो है नहीं, उन्हीं को ही प्रोत्साहन देती हैं। मोक्ष का उनमें उल्लेख तक नहीं है। महापुरुष- महापुरुष बाह्य तथा आन्तरिक, व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक, लोक-रीति और यथार्थ वेद-रीति दोनों की जानकारी रखता है। यही कारण है कि समस्म समाज को महापुरुषों ने रहन-सहन का विधान बताया और एक मर्यादित व्यवस्था दी। वशिष्ठ, विश्वामित्र, स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण, महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध, मूसा, ईसा, मुहम्मद, रामदास, दयानन्द, गुरु गोविन्द सिंह इत्यादि सहस्त्रों महापुरुषों ने ऐसा किया; किन्तु व्यवस्थाएँ सामयिक होती हैं। पीड़ित समाज को भौतिक वस्तु प्रदान करना यथार्थ नहीं है। भौतिक उलझनें क्षणिक हैं शाश्वत नहीं, इसलिये उनका हल भी तत्सामयिक होता है। उन्हें चिरंतन व्यवस्था के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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