यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दनवम अध्यायअध्याय छः तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग का क्रमबद्ध विश्लेषण किया, जिसका शुद्ध अर्थ है यज्ञ की प्रक्रिया। यज्ञ उस परम में प्रवेश दिला देनेवाली आराधना की विधि-विशेष का चित्रण है, जिसमें चराचर जगत् हवन-सामग्री के रूप में है। मन के निरोध और निरुद्ध मन के भी विलयकाल में वह अमृत-तत्त्व विदित हो जाता है। पूर्तिकाल में यज्ञ की जिसकी सृष्टि करता है, उसको पान करनेवाला ज्ञानी है और वह सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है। उस मिलन का नाम ही योग है। उस यज्ञ को कार्यरूप देना कर्म कहलाता है। सातवें अध्याय में उन्होंने बताया कि इस कर्म को करनेवाले व्याप्त ब्रह्म, सम्पूर्ण कर्म, सम्पूर्ण अध्यात्म, सम्पूर्ण अधिदैव, अधिभूत और अधियज्ञसहित मुझको जानते हैं। आठवें अध्याय में उन्होंने कहा कि यही परमगति है, यही परमधाम है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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