यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 37

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय


प्रथम अध्याय गीता की प्रवेशिका है, जिसमें आरम्भ में पथिक को प्रतीत होनेवाली उलझनों का चित्रण है। लड़नेवाले सम्पूर्ण कौरव और पाण्डव हैं, किन्तु संशय का पात्र मात्र अर्जुन है। अनुराग ही अर्जुन है। इष्ट के अनुरूप राग ही पथिक को क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संघर्ष के लिये प्रेरित करता है। अनुराग आरम्भिक स्तर है। ‘पूज्य महाराज जी’ कहते थे- “सद्गृहस्थ आश्रम में रहते हुए ग्लानि होने लगे, अश्रुपात होता हो, कण्ठ अवरुद्ध होता हो तो समझना कि यहीं से भजन आरम्भ हो गया।” अनुराग में यह सब कुछ आ जाता है। उसमें धर्म, नियम, सत्संग, भाव सभी विद्यमान होंगे।

अनुराग के प्रथम चरण में पारिवारिक मोह बाधक बनता है। पहले मनुष्य चाहता है कि वह उस परम सत्य को प्राप्त कर ले; किन्तु आगे बढ़ने पर वह देखता है कि इन मधुर सम्बन्धों का उच्छेद करना होगा, तब हताश हो जाता है। वह पहले से जो कुछ धर्म-कर्म मानकर करता था, उतने में ही सन्तोष करने लगता है। अपने मोह की पुष्टि के लिये वह प्रचलित रूढ़ियों का प्रमाण भी प्रस्तुत करता है- जैसा अर्जुन ने किया कि कुलधर्म सनातन है। युद्ध से सनातन-धर्म का लोप होगा, कुलक्षय होगा, स्वैराचार फैलेगा। यह अर्जुन का उत्तर नहीं था, बल्कि सद्गुरु के सान्निध्य से पूर्व अपनायी गयी एक कुरीति मात्र थी।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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