यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 871

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

उत्तम अधिकारी के प्रति ही उन्होंने उसे व्यक्त किया। श्रीकृष्ण ने बार-बार कहा कि तुम अतिशय प्रीति रखनेवाले भक्त के प्रति हित की इच्छा से कहता हूँ। यह अति गोपनीय है। अन्त में उन्होंने कहा- जो भक्त नहीं हो तो प्रतीक्षा करो, उसको रास्ते पर लाओ, फिर उसी के लिये कहो। यही मनुष्य मात्र के लिये यथार्थ कल्याण का एकमात्र साधन है, जिसका क्रमबद्ध वर्णन श्रीकृष्णोक्त गीता है।


तद्विद्वि प्रणिपातेन प्ररिप्रश्नेन सेवया।
उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।।


ऊँ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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