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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
दशम अध्याय
गत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गुप्त राजविद्या का चित्रण किया, जो निश्चित ही कल्याण करती है। इस अध्याय में उनका कथन है-महाबाहु अर्जुन! मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को फिर भी सुन। यहाँ उसी को दूसरी बार कहने की आवश्यकता क्या है? वस्तुतः साधक को पूर्तिपर्यन्त खतरा है। ज्यों-ज्यों वह स्वरूप में ढलता जाता है, प्रकृति के आवरण सूक्ष्म होते जाते हैं, नये-नये दृश्य आते हैं। उसकी जानकारी महापुरुष ही देते रहते हैं। वह नहीं जानता। यदि वे मार्गदर्शन करना बन्द कर दें तो साधक स्वरूप की उपलब्धि से वंचित रहेगा। जब तक वह स्वरूप से दूर है, तब तक सिद्ध है कि प्रकृति का कोई-न-कोई आवरण बना है। फिसलने-लड़खड़ाने की सम्भावना बनी रहती है। अर्जुन शरणागत शिष्य है। उसने कहा-‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।’- भगवन्! मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे सँभालिये। अतः उसके हित की कामना से योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः बोले-
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