विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तदश अध्यायअध्याय सोलह के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा कि काम, क्रोध और लोभ के त्यागने पर ही कर्म आरम्भ होता है, जिसे मैंने बार-बार कहा है। नियत कर्म को बिना किये न सुख, न सिद्धि और न परमगति ही मिलती है। इसलिये अब तुम्हारे लिये कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में कि क्या करूँ, क्या न करूँ?-इस सम्बन्ध में शास्त्र ही प्रमाण है। कोई अन्य शास्त्र नहीं; बल्कि ‘इति गुह्यतमं शास्त्रमिदम्।[1] गीता स्वयं शास्त्र है। अन्य शास्त्र भी हैं; किन्तु यहाँ इसी गीताशास्त्र पर दृष्टि रखें, दूसरा न ढूँढ़ने लगें। दूसरी जगह ढूँढ़ेगे तो यह क्रमबद्धता नहीं मिलेगी, अतः भटक जायेंगे। इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया कि भगवन्! जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर ‘यजन्ते’-यजन करते हैं, उनकी गति कैसी है? सात्विकी है, राजसी अथवा तामसी है? क्योंकि पीछे अर्जुन ने सुना था कि सात्विक, राजस अथवा तामस, जब तक गुण विद्यमान हैं, किसी-न-किसी योनि के ही कारण होते हैं। इसलिये प्रस्तुत अध्याय के आरम्भ में ही उसने प्रश्न रखा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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