यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 576

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वादश अध्याय

एकादश अध्याय के अन्त में श्रीकृष्ण ने बार-बार बल दिया कि- अर्जुन! मेरा यह स्वरूप जिसे तूने देखा, तेरे सिवाय न पहले कभी देखा गया है और न भविष्य में कोई देख सकेगा। मैं न तपसे, न यज्ञसे और न दान से ही देखे जाने को सुलभ हूँ; किन्तु अनन्य भक्ति के द्वारा अर्थात् मेरे अतिरिक्त अन्यत्र कहीं श्रद्धा बिखरने न पाये, निरन्तर तैलधारावत् मेरे चिन्तन के द्वारा ठीक इसी प्रकार जैसा तूने देखा, मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये, तत्त्व से साक्षात् जानने के लिये और प्रवेश करने के लिये भी सुलभ हूँ। अतः अर्जुन! निरन्तर मेरा ही चिन्तन कर, भक्त बन। अर्जुन! तू मेरे ही द्वारा निर्धारित किये गये कर्म को कर। ‘मत्परमः’-अपितु मेरे परायण होकर कर। अनन्य भक्ति ही उनकी प्राप्ति का माध्यम है। इस पर अर्जुन का प्रश्न स्वाभाविक है कि जो अव्यक्त अक्षर की उपासना करते हैं और जो सगुण आपकी उपासना करते हैं, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है?

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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