विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वादश अध्यायएकादश अध्याय के अन्त में श्रीकृष्ण ने बार-बार बल दिया कि- अर्जुन! मेरा यह स्वरूप जिसे तूने देखा, तेरे सिवाय न पहले कभी देखा गया है और न भविष्य में कोई देख सकेगा। मैं न तपसे, न यज्ञसे और न दान से ही देखे जाने को सुलभ हूँ; किन्तु अनन्य भक्ति के द्वारा अर्थात् मेरे अतिरिक्त अन्यत्र कहीं श्रद्धा बिखरने न पाये, निरन्तर तैलधारावत् मेरे चिन्तन के द्वारा ठीक इसी प्रकार जैसा तूने देखा, मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये, तत्त्व से साक्षात् जानने के लिये और प्रवेश करने के लिये भी सुलभ हूँ। अतः अर्जुन! निरन्तर मेरा ही चिन्तन कर, भक्त बन। अर्जुन! तू मेरे ही द्वारा निर्धारित किये गये कर्म को कर। ‘मत्परमः’-अपितु मेरे परायण होकर कर। अनन्य भक्ति ही उनकी प्राप्ति का माध्यम है। इस पर अर्जुन का प्रश्न स्वाभाविक है कि जो अव्यक्त अक्षर की उपासना करते हैं और जो सगुण आपकी उपासना करते हैं, इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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