विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वादश अध्याययहाँ इस प्रश्न को अर्जुन ने तीसरी बार उठाया है। अध्याय तीन में उसने कहा-भगवन्! यदि निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा सांख्ययोग आपको श्रेष्ठ मान्य है, तो आप मुझे भयंकर कर्मों में क्यों लगतो हैं? इस पर श्रीकृष्ण ने कहा-अर्जुन! निष्काम कर्ममार्ग अच्छा लगे चाहे ज्ञानमार्ग, दोनों ही दृष्टियों से कर्म तो करना ही पड़ेगा। इतने पर भी जो इन्द्रियों को हठ से रोेककर मन से विषयों का स्मरण करता है वह दम्भाचारी है, ज्ञानी नहीं। अतः अर्जुन! तू कर्म कर। कौन-सा कर्म करे?, तो ‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’-निर्धारित किये हुए कर्म को कर। निर्धारित कर्म क्या है? तो बताया-यज्ञ की प्रक्रिया ही एकमात्र कर्म है। यज्ञ की विधि को बताया, जो आराधना-चिन्तन की विधि-विशेष है, परम में प्रवेश दिलानेवाली प्रक्रिया है। जब निष्काम कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों में ही कर्म करना है, यथार्थ कर्म करना है, क्रिया एक ही है तो अन्तर कैसा? भक्त कर्मों का समर्पण करके इष्ट के आश्रित होकर यज्ञार्थ कर्म में प्रवृत्त होता है, तो दूसरा सांख्ययोगी अपनी शक्ति को समझकर (अपने भरोसे) उसी कर्म में प्रवृत्त होता है, पूरा श्रम करता है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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