यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 1

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।1।।

धृतराष्ट्र ने पूछा- “हे संजय! धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र में एकत्र युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?”

अज्ञान रूपी धृतराष्ट्र और संयम रूपी संजय। अज्ञान मन के अन्तराल में रहता है। अज्ञान से आवृत्त मन धृतराष्ट्र जन्मान्ध है; किन्तु संयम रूपी संजय के माध्यम से वह देखता है, सुनता है और समझता है कि परमात्मा ही सत्य है, फिर भी जब तक इससे उत्पन्न मोह रूपी दुर्योधन जीवित है इसकी दृष्टि सदैव कौरवों पर रहती है, विकारों पर ही रहती है।

शरीर एक क्षेत्र है। जब हृदय-देश में दैवी सम्पत्ति का बाहुल्य हेाता है तो यह शरीर धर्म क्षेत्र बन जाता है और जब इसमें आसुरी सम्पत्ति का बाहुल्य होता है तो यह शरीर कुरुक्षेत्र बन जाता है। ‘कुरु’ अर्थात् करो - यह शब्द आदेशात्मक है। श्री कृष्ण कहते हैं - प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों द्वारा परवश होकर मनुष्य कर्म करता है। वह क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। गुण उससे करा लेते हैं। सो जाने पर भी कर्म बन्द नहीं होता, वह भी स्वस्थ शरीर की आवश्यक खुराक मात्र है। तीनों गुण मनुष्य को देवता से कीट पर्यन्त शरीरों में ही बाँधते हैं। जब तक प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न गुण जीवित हैं, तब तक ‘कुरु’ लगा रहेगा। अतः जन्म-मृत्यु वाला क्षेत्र, विकारों वाला क्षेत्र कुरुक्षेत्र है और परम धर्म परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाली पुण्यमयी प्रवृत्तियों (पाण्डवों) का क्षेत्र धर्म क्षेत्र है।

पुरातत्त्वविद् पंजाब में, काशी-प्रयाग के मध्य तथा अनेकानेक स्थलों पर कुरुक्षेत्र की शोध में लगे हैं; किन्तु गीताकार ने स्वयं बताया है कि जिस क्षेत्र में यह युद्ध हुआ, वह कहाँ है। ‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।’[1] “अर्जुन! यह शरीर ही क्षेत्र है और जो इसको जानता है, इसका पार पा लेता है, वह क्षेत्रज्ञ है।” आगे उन्होंने क्षेत्र का विस्तार बताया, जिसमें दस इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, पाँचों विकार और तीनों गुणों का वर्णन है। शरीर ही क्षेत्र है, एक अखाड़ा है। इसमें लड़ने वाली प्रवृत्तियाँ दो हैं - “दैवी सम्पद्’ और ‘आसुरी सम्पद्’, ‘पाण्डु की सन्तान’ और ‘धृतराष्ट्र की सन्तान’, ‘सजातीय और विजातीय प्रवृत्तियाँ’।

अनुभवी महापुरुष की शरण जाने पर इन दोनों प्रवृत्तियों में संघर्ष का सूत्रपात होता है। यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का संघर्ष है और यही वास्तविक युद्ध है। विश्व युद्धों से इतिहास भरा पड़ा है; किन्तु उनमें जीतने वालों को भी शाश्वत विजय नहीं मिलती। ये तो आपसी बदले हैं। प्रकृति का सर्वथा शमन करके प्रकृति से परे की सत्ता का दिग्दर्शन करना और उसमें प्रवेश पाना ही वास्तविक विजय है। यही एक ऐसी विजय है जिसके पीछे हार नहीं है। यही मुक्ति है, जिसके पीछे जन्म-मृत्यु का बन्धन नहीं है।

इस प्रकार अज्ञान से आच्छादित प्रत्येक मन संयम के द्वारा जानना है कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के युद्ध में क्या हुआ? अब जैसा जिसके संयम का उत्थान है, वैसे-वैसे उसे दृष्टि आती जायेगी।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. अ. 13/1

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यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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