यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशम“महापुरुष ने कहा”-ऐसा कहकर इन व्यवस्थाओं के लिये महापुरुषों की दुहाई भी देते हैं। वे महापुरुष की वास्तविक क्रिया को तोड़-मरोड़कर उसे भ्रामक बना देते हैं। वेद, रामायण, महाभारत, बाइबिल, कुरान सबके प्रति पूर्वाग्रहयुक्त धूमिल धारणाएँ शेष हैं। बाह्य धरातल पर जीवनयापन करनेवाला समाज उनके कथन का स्थूल आशय ही ग्रहण कर पाताहै। इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण ने शाश्वत धाम, अनन्त जीवन, सदा रहनेवाली शान्ति प्रदायिनी गीता शास्त्र को भौतिक व्यवस्थाओं से पृथक् किया। महाभारत का बृहत् इतिहास तथा गौरवशाली संस्कृति शास्त्र है। उन्होंने इस विशाल इतिहास के मध्य इसका गायन किया, जिससे भविष्य में आनेवाली समस्त पीढ़ियाँ इस धर्मशास्त्र को धार्मिक धरातल पर यथावत समझ सकें। कालान्तर में महर्षि पतंजलि इत्यादि अनेक महापुरुषों ने भी परमश्रेय की विधि को सामाजिक व्यवस्था से हटाकर अलग प्रस्तु किया। गीता मनुष्य मात्र के लिये- भगवान् ने इस धर्मशास्त्र का उपदेश ‘प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते’- (गीता, 1/20)- ठीक शस्त्र-संचालन के समय किया क्योंकि वह भली प्रकार जानते थे कि भौतिक संसार में कभी शान्ति और सुख होता ही नहीं। अरबों लोगों की आहुति के उपरान्त भी जो विजेता होंगे, वह भी विफल मनोरथ और अन्ततः उदास ही होंगे, इसलिये उन्होंने ऐसे शाश्वत युद्ध का परिचय गीता के माध्यम से दिया, जिसमें एक बार विजय हो जाने पर सदा रहनेवाली विजय, अनन्त विजय और अक्षय धाम है जो मानव मात्र के लिये सदैव सुलभ है, जो क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की लड़ाई है, प्रकृति और पुरुष का संघर्ष है, अन्तःकरण में अशुभ का अन्त और शुभ परमात्मस्वरूप की प्राप्ति का साधन है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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