यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 869

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

व्यवस्थाकार- सामाजिक विकृतियों को महापुरुष सुलझाया करते हैं। यदि इन्हें न सुलझाया जाय तो ज्ञान-वैराग्यजनित परम की साधना कौन सुनेगा? व्यक्ति जिस वातावरण में फँसा है, उसे वहाँ से हटाकर यथार्थ को जानने की स्थिति में लाने के लिये अनेकानेक प्रलोभन दिये जाते हैं। एतदर्थ महापुरुष जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, कोई व्यवस्था देते हैं, वह धर्म नहीं है। उससे सौ-दो सौ साल की व्यवस्था मिलती है, चार-छः सौ साल के लिये उदाहरण बन जाता है और हजार दो हजार वर्ष में वह सामाजिक आविष्कार नवीन परिस्थितियों के साथ-साथ निष्प्राण हो जाता है। गुरु गोविन्द सिंह की सामाजिक व्यवस्था में शस्त्र अनिवार्य था। क्या अब उस तलवार का शस्त्र के स्थान पर औचित्य है?

ईसा गदहे पर बैठते थे। (मत्ती, 21) गदहे के सम्बन्ध में उनकी दी हुई व्यवस्थाओं का आज क्या उपयोग है? कहा-किसी का गधा मत चुराओ। आज गधा कौन पालता है? इसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उस समय के समाज को सम्यक् व्यवस्थित किया, जिसका उल्लेख महाभारत, भागवत इत्यादि ग्रन्थों में है, साथ ही इन ग्रन्थों में उन्होंने यथार्थ का भी यत्र-तत्र चित्रण किया। परमकल्याणकारी साधना और भौतिक व्यवस्थाओं के निर्देश को एक में मिला देने से समाज तत्वनिर्णायक क्रम को पूरा-पूरा नहीं समझ पाता। भौतिक व्यवस्थाओं को वह ज्यों-का-त्यों नहीं बल्कि बढ़ाचढ़ाकर ग्रहण करता है; क्योंकि वह भौतिक है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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