यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमस्त्री- गीता के अनुसार शरीर एक वस्त्र है। जैसे पुराने वस्त्र को त्यागकर मनुष्य नया वस्त्र धारण कर लेता है, ठीक इसी प्रकार भूतादिकों का स्वामी आत्मा इस शरीररूपी वस्त्र को त्यागकर दूसरा शरीर (वस्त्र) धारण कर लेता है। आप पिण्डरूप में स्त्री हों या पुरुष, ये वस्त्र के आकार हैं। संसार में पुरुष दो प्रकार का है- क्षर और अक्षर। समस्त प्राणियों का शरीर क्षर पुरुष अथवा परिवर्तनशील पुरुष है। मनसहित इन्द्रियाँ जब कूटस्थ हो जाती हैं, तब वही अक्षर पुरुष है। उसका कभी विनाश नहीं होता। यह भजन की अवस्था है। स्त्रियों के प्रति कभी सम्मान, तो कभी अपमान की भ्ज्ञावना समाज में बनी ही रहती है; किन्तु गीता की अपौरुषेय वाणी में यह है कि शूद्र (अल्पज्ञ), वैश्य (विधिप्राप्त), स्त्री-पुरुष कोई क्यों न हो, मेरी शरण आकर परमगति को प्राप्त होता है। अतः इस कल्याण-पथ में स्त्रियों का वही स्थान है, जो एक पुरुष का है। भौतिक समृद्धि- गीता परमकल्याण तो देती है, साथ ही मनुष्यों के लिये आवश्यक भौतिक वस्तुओं का भी विधान करती है। अध्याय 9/20-22 में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं बहुत से लोग निर्धारित विधि से मुझे पूजकर बदले में स्वर्ग की कामना करते हैं। उन्हें विशाल स्वर्गलोक मिलता है, मैं देता हूँ। जो माँगोगे, वह मुझसे मिलेगा; किन्तु उपभोग के पश्चात् समाप्त हो जायेगा, क्योंकि स्वर्ग के भोग भी नश्वर हैं। उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ेगा। हाँ, मुझसे सम्बन्धित होने के कारण वे नष्ट नहीं होते; क्योंकि मैं कल्याणस्वरूप हूँ। मैं उन्हें भोग देता हूँ और शनैः शनैः निृवत्त कराकर पुनः उन्हें कल्याण में लगा देता हूँ।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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