यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमक्षेत्र- जिन परमात्मा के श्रीमुख की वाणी यह गीता है उन्होंने स्वयं परिचय दिया, ‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्याभिधीयते।’- अर्जुन! यह शरीर ही क्षेत्र (खेत) है, जिसमें बोया गया भला और बुरा कर्मबीज संस्काररूप में जमता है और कालान्तर में सुख-दुःख का रूप लेकर भोग के रूप में मिलता है। आसुरी सम्पद् अधम योनियों में ले जाने के लिये है, जबकि दैवी सम्पद् परमदेव परमात्मा में प्रवेश दिलाती है। सद्गुरु के सान्निध्य में इनके निर्णायक युद्ध का आरंभ होता है, यही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की लड़ाई है। कुछेक टीकाकार कहते हैं’ एक कुरुक्षेत्र बाहर है और दूसरा मन के भीतर है। गीता का एक अर्थ बाहरी है, दूसरा भीतरी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। वक्ता एक बात कहता है; किन्तु श्रोता अपनी बुद्धि के अनुरूप ही उसे पकड़ पाते हैं, इसीलिये अनेक अर्थ प्रतीत होते हैं। साधन-पथ पर क्रमशः चलकर जो भी पुरुष श्रीकृष्ण के स्तर पर खड़ा हो जायेगा, तो जो दृश्य श्रीकृष्ण के सामने था, वही उसके सामने भी होगा। वही महापुरुष उनके मनोगत भावों को गीता के संकेतों को समझ सकता है, समझा सकता है। गीता का एक भी श्लोक बाहर का चित्रण नहीं करता। खाना, पहनना, रहना आप जानते ही हैं। रहन-सहन, मान्यता, लोकरीति-नीति में देश-काल और परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन प्रकृति की देन है। इसमें श्रीकृष्ण आपको कौन-सी व्यवस्था दें? कहीं लड़कियों का बाहुल्य है, बहु विवाह होते हैं, तो कहीं उनकी संख्या कम है। कहीं कई भाइयों के बीच एक पत्नी रह लेती है-इसमें श्रीकृष्ण कौन-सी व्यवस्था दें। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान में जनसंख्या की कमी समस्या बन गयी तो तीस बच्चों को जन्म देने वाली एक महिला को मदरलैंड (देश की माता) की पाधि से सम्मानित किया गया। वैदिककालीन भारत में पहले दस सन्तान उत्पन्न करने का विधान था, अब ‘एक या दो बच्चे, होते हैं घर में अच्छे’ का नारा लग रहा है। कदाचित् वे न रहें तो देश के लिय चिन्ता का विषय नहीं, समस्या का हल ही होता है। श्रीकृष्ण इसमें कौन-सी व्यवस्था दें?
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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