यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमश्रीकृष्ण ने कहा (अध्याय 6/40-45)- अर्जुन! योग से चलायमान हुए शिथिल प्रयत्नवाले पुरुष का कभी विनाश नहीं होता। वह योगभ्रष्ट श्रीमानों [‘शुचीनाम्’-शुद्ध (सत्य) आचरणवाले ही श्रीमान हैं।] के यहाँ जन्म लेकर योगी-कुल में प्रवेश पा जाता है, साधन की ओर आकर्षित होता है और अनेक जन्मों में चलकर वहीं पहुँच जाता है, जिसका नाम परमगति अर्थात् परमाधा है। यह श्ज्ञिथिल प्रयत्न कौन करता है? योगभ्रष्ट होकर वह कहाँ जन्म लेता है? गृहस्थ ही तो बना। वहीं से वह साधनोन्मुख होता है। अध्याय 9/30 में उन्होंने कहा-अत्यन्त दुराचरी भी यदि अनन्यभाव से मुझे भजने लगे तो वह साधु ही है; क्योंकि वह निश्चय के साथ सही रास्ते पर लग गया है। अत्यन्त दुराचारी कौन होगा-जो भजन में प्रवृत्त हो गया वह अथवा वह, जिसने अभी आरम्भ ही नहीं किया? अध्याय 9/32 में कहा- स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि वाले ही क्यों न हों, मेरे आश्रित होकर साधन करने से परमगति पाते हैं। हिन्दू हो ईसाई हो मुसलमान हो- श्रीकृष्ण ऐसा कुछ नहीं कहते, अत्यन्त दुराचारी पातकी ही क्यों न हों, मेरी शरण होकर परमगति पाते हैं। अतः मानवामात्र के लिये है। सद्गृहस्थ आश्रम से ही इस कर्म का आरम्भ है। क्रमशः वही सद्गृहस्थ योगी बनता है, पूर्ण त्यागी हो जाता है और तत्व का दिग्दर्शन कर परम में प्रवेश पा जाता है, जिसे श्रीकृष्ण ने कहा कि ज्ञानी मेरा स्वरूप है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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