यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 853

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

श्रीकृष्ण ने कहा (अध्याय 6/40-45)- अर्जुन! योग से चलायमान हुए शिथिल प्रयत्नवाले पुरुष का कभी विनाश नहीं होता। वह योगभ्रष्ट श्रीमानों [‘शुचीनाम्’-शुद्ध (सत्य) आचरणवाले ही श्रीमान हैं।] के यहाँ जन्म लेकर योगी-कुल में प्रवेश पा जाता है, साधन की ओर आकर्षित होता है और अनेक जन्मों में चलकर वहीं पहुँच जाता है, जिसका नाम परमगति अर्थात् परमाधा है। यह श्ज्ञिथिल प्रयत्न कौन करता है? योगभ्रष्ट होकर वह कहाँ जन्म लेता है? गृहस्थ ही तो बना। वहीं से वह साधनोन्मुख होता है।

अध्याय 9/30 में उन्होंने कहा-अत्यन्त दुराचरी भी यदि अनन्यभाव से मुझे भजने लगे तो वह साधु ही है; क्योंकि वह निश्चय के साथ सही रास्ते पर लग गया है। अत्यन्त दुराचारी कौन होगा-जो भजन में प्रवृत्त हो गया वह अथवा वह, जिसने अभी आरम्भ ही नहीं किया?

अध्याय 9/32 में कहा- स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि वाले ही क्यों न हों, मेरे आश्रित होकर साधन करने से परमगति पाते हैं। हिन्दू हो ईसाई हो मुसलमान हो- श्रीकृष्ण ऐसा कुछ नहीं कहते, अत्यन्त दुराचारी पातकी ही क्यों न हों, मेरी शरण होकर परमगति पाते हैं। अतः मानवामात्र के लिये है। सद्गृहस्थ आश्रम से ही इस कर्म का आरम्भ है। क्रमशः वही सद्गृहस्थ योगी बनता है, पूर्ण त्यागी हो जाता है और तत्व का दिग्दर्शन कर परम में प्रवेश पा जाता है, जिसे श्रीकृष्ण ने कहा कि ज्ञानी मेरा स्वरूप है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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