यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमगृहस्थों का अधिकार- प्रायः लोग पूछते हैं कि जब कर्म का यही स्वरूप है, जिसमें एकान्त-देश का सेवन, इन्द्रिय-संयम, निरन्तर चिन्तन और ध्यान करना है, तब तो गीता गृहस्थों के लिये अनुपयोगी है। तब तो गीता केवल साधुओं के लिये है। किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है। गीता मूलतः उसके लिये है, जो इस पथ का पथिक है और अंशतः उसके लिये भ्ज्ञी है, जो इस पथ का पथिक बनना चाहता है। गीता मानवमात्र के लिये समान आशय रखती है सद्गृहस्थों के लिये तो इसका विशेष उपयोग है; क्योंकि वहीं से कर्म आरम्भ होता है। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! इस निष्काम कर्मयोग में आरम्भ का कभी नाश नहीं होता। इसका थोड़ा भी साधन जन्म-मरण के महान् भय से उद्धार कराके ही छोड़ता है। आप ही बतायें, थोड़ा साधन कौन करेगा-गृहस्थ अथवा विरक्त? गृहस्थ ही इसके लिये थोड़ा समय देगा, यह उसके लिये ही है। अध्याय 4/36 में कहा- अर्जुन! यदि तू सम्पूर्ण पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है, तब भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसन्देह पार हो जायेगा। अधिक पापी कौन है-जो अनवरत लगा है अथवा जो अभी लगना चाहता है? अतः सद्गृहस्थ आश्रम से ही कर्म का आरम्भ है। अध्याय 6/37 में अर्जुन ने पूछा-भगवन्! शिथिल प्रयत्नवाला श्रद्धावान् पुरुष परमगति को न पाकर किस दुर्गति को प्राप्त होता है? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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