यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 852

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

गृहस्थों का अधिकार- प्रायः लोग पूछते हैं कि जब कर्म का यही स्वरूप है, जिसमें एकान्त-देश का सेवन, इन्द्रिय-संयम, निरन्तर चिन्तन और ध्यान करना है, तब तो गीता गृहस्थों के लिये अनुपयोगी है। तब तो गीता केवल साधुओं के लिये है। किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है। गीता मूलतः उसके लिये है, जो इस पथ का पथिक है और अंशतः उसके लिये भ्ज्ञी है, जो इस पथ का पथिक बनना चाहता है। गीता मानवमात्र के लिये समान आशय रखती है सद्गृहस्थों के लिये तो इसका विशेष उपयोग है; क्योंकि वहीं से कर्म आरम्भ होता है।

श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! इस निष्काम कर्मयोग में आरम्भ का कभी नाश नहीं होता। इसका थोड़ा भी साधन जन्म-मरण के महान् भय से उद्धार कराके ही छोड़ता है। आप ही बतायें, थोड़ा साधन कौन करेगा-गृहस्थ अथवा विरक्त? गृहस्थ ही इसके लिये थोड़ा समय देगा, यह उसके लिये ही है।

अध्याय 4/36 में कहा- अर्जुन! यदि तू सम्पूर्ण पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है, तब भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसन्देह पार हो जायेगा। अधिक पापी कौन है-जो अनवरत लगा है अथवा जो अभी लगना चाहता है? अतः सद्गृहस्थ आश्रम से ही कर्म का आरम्भ है।

अध्याय 6/37 में अर्जुन ने पूछा-भगवन्! शिथिल प्रयत्नवाला श्रद्धावान् पुरुष परमगति को न पाकर किस दुर्गति को प्राप्त होता है?

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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