विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायशूद्र का अर्थ है अल्पज्ञ। अल्पज्ञ साधक जो नियत कर्म चिन्तन में दो घण्टे बैठकर दस मिनट भी अपने पक्ष में नहीं पाता। शरीर अवश्य बैठा है, लेकिन जिस मन को टिकना चाहिये, वह तो हवा से बातें कर रहा है। ऐसे साधक का कल्याण कैसे हो? उसे अपने से उन्नत अवस्थावालों की अथवा सद्गुरु की सेवा करनी चाहिये। शनैः-शनैः उसमें भी संस्कारों का सृजन होगा, वह गति पकड़ लेगा। अतः इस अल्पज्ञ का कर्म सेवा से ही प्रारम्भ होगा। कर्म एक ही है-नियत कर्म, चिन्तन। उसके कर्ता की चार श्रेणियाँ-अति उत्तम, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। मनुष्य को नहीं बल्कि गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बाँटा गया है। गीतोक्त वर्ण इतने में ही है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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