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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
अष्टदश अध्याय
तत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि- अर्जुन! उस परमसिद्धि की विधि बताऊँगाा, जो ज्ञान की परानिष्ठा है। विवेक, वैराग्य, शम, दम, धारावाही चिन्तन और ध्यान की प्रवृत्ति इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिला देने वाली सारी योग्यताएँ जब परिपक्व हो जाती हैं और काम, क्रोध, मोह, राग, द्वेषादि प्रकृति में घसीटकर रखनेवाली प्रवृत्तियाँ जब पूर्णतः शान्त हो जाती हैं, उस समय वह व्यक्ति ब्रह्म को जानने योग्य होता है। उसी योग्यता का नाम पराभक्ति है। पराभक्ति के द्वारा ही वह तत्व को जानता है। तत्व है क्या? बताया-मैं जो हूँ, जिन विभूतियों से युक्त हूँ, उसको जानता है अर्थात् परमात्मा जो है, अव्यक्त, शाश्वत, अपरिवर्तनशील जिन अलौकिक गुणधर्मोंवाला है, उसे जानता है और जानकर वह तत्क्षण मुझमें स्थित हो जाता है। अतः तत्व है परमतत्व, न कि पाँच या पच्चीस तत्व। प्राप्ति के साथ आत्मा उसी स्वरूप में स्थित हो जाता है, उन्हीं गुणर्धों से युक्त हो जाता है।
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