गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16सम्भवतः दर्पण में अपना मुहँ देखकर ही ये लजा जायं और मधुर भाषण करें।‘‘ गोपियाँ प्रेम-विभोर हैं। भक्त-शिरोमणि श्री हनुमान् जी कह रहे हैं- ‘मोर न्याउ मैं पूछा सांई। तुम्ह पूछहु कस नर की नाई।‘[1] हे स्वामीं! मैं अल्पज्ञ हॅूं अतः स्वस्वरूप से भी और कारुण्य-सुधा-जलनिध, प्रपन्न-पारिजात, भगवत् स्वरूप से भी विस्मृत हो जाता हॅूं। ‘मूढ़ोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया‘, हे प्रभो! आपकी माया से मोहित हम मूढ़ प्राणी अपने-आपको भी नहीं जान पाते, आपको भी नहीं जान पाते। परन्तु आप सर्वज्ञ, सर्वाधिष्ठान हैं, सर्वगतिविद् है; अस्तु हमारे आन्तरिक भाव के ज्ञाता हैं। ‘त्वमेव एका गतिः यासां ताः त्वदेकगतिकाः‘ आप जानते हैं कि हमारे ध्येय, ज्ञेय, परमाध्य, सर्वस्व सब आप ही हैं। हम गोपांगनाएँ अपने सर्वस्व का, पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, लोक-वेद सम्पूर्ण का परित्याग कर आपकी शरण में आई हैं। ‘गतिर्भंर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभु ही गति हैं, पति हैं, सर्वसाक्षी हैं। ‘सर्व-समर्थ निवासः‘ भगवान् ही हमारे निवास-स्थान है; भगवान् ही अन्तरात्मां, अन्तःकरण, अन्तःप्राण हैं। ‘शरणं गृहरक्षित्रों:। अमरकोष भगवान ही हमारे आधार‘आयतन हैं, रक्षक हैं, भर्ता हैं। ‘तात मात गुरु सखा तू सब विधि हितु मेरो। |