गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 423

Prev.png

गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

वृषभानु-नन्दिनी राधारानी, ललिता, विशाखा आदि दिव्यातिदिव्य गोपांगनाएँ लौकिक व्यवहारदृष्ट्या अपने-अपने घर को लौट भी गई तथापि वस्तुतः उनका कोई लौकिक सम्बन्ध न रहा। वे कह रही हैं, ‘पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानति विलंग्ध्य तेऽन्त्यच्युतागताः‘ हे अच्युत! सम्पूर्ण लौकिक सम्बन्ध एवं धर्मांधर्म, सत्यासत्य एवं अहंकार का परित्याग कर हम आपके सन्निधान में आई हैं; आप प्रणत-कल्पतरु, अविच्युत है, जनरंजक हैं। ‘गतिविदस्तव‘ आप गतिविद् है; जड़, शुष्क, अल्पज्ञ के प्रति अपने हृदय के रहस्य का निवेदन अत्यन्त कष्टप्रद होता है; जैसे चातक के मनोभाव से जड़ बादल, मीन के प्रेम से जल अनभिज्ञ ही रह जाता है, वैसे ही, अल्पज्ञ सांसारिक जन भी प्रेमपूर्ण हृदय के सम्पूर्ण भावों को जानने में असमर्थ ही रह जाते हैं। प्रायः व्यक्ति स्वयं भी अपने मनोभावों से अपरिचित रह जाता है; मनोविज्ञान-शास्त्र के सिद्धान्तनुसार व्यक्ति की अनेकानेक भावनायें स्वयं उसके लिए भी अविदित ही रह जाती हैं। भगवान् सर्वाधिष्ठान् सर्वान्तरात्मा, सर्वसाक्षी, सर्वान्तर्यामी एवं सर्वज्ञ-शिरोमणि हैं। भक्तराज प्रह्लाद कह रहे हैं, कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरेरूपासने स्वे हृदि छिद्रवत् सतः। स्वस्यात्मनः सख्युरशेषदहिनां सामान्यतः किं विष्योपपादनैः।।[1] हे असुर बालकों! अपने हृदय में ही आसीन हरि की उपासना में भला कोन प्रयास आवश्यक है? आकाश की भाँति भगवान् ही सबके हृदय में व्याप्त है; भगवान् प्रत्यागात्मा है; शरीररूप अन्नमय कोष के भीतर क्रमशः प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एव आनन्दमय कोष है; इस आनन्दमय कोष में स्थित ‘तस्य प्रियमेवशिरः। मोदो दक्षिणः पक्षः। प्रमोद उत्तर पक्षः। आनन्द आत्मा। ब्रह्मपुच्छं प्रतिष्ठा‘[2] ‘पुच्छ प्रतिष्ठ‘ ही ब्रह्म है, सर्वाधिष्ठान अतः भगवान् ही ‘गतिविदस्ते‘ सम्पूर्ण गति-विधि के पूर्ण ज्ञाता है।

‘गतिविदस्ते गति स्वस्वभावं च अस्मांक स्वभाव भवान् वेत्ति इति गतिवित् तस्य गतिविदः ते अंतिकं वयं आगताः‘ अर्थात्, आप अपने स्वभाव को भी जानते हैं, साथ ही हमारे स्वभाव को भी जानते हैं अतः हम आपके पास आई हैं। भगवान् श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं, ‘स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः।‘ [3] ‘‘हे महाभागाओं! तुम्हारा स्वागत है। बताओ तो हम तुम्हारा क्या प्रिय करें?‘‘ भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसे वचनों को सुनकर गोपांगनाएँ परस्पर कहनें लगीं, ‘‘हे सखि! क्या तुम कोई दर्पण भी लाई हो? इन श्यामसुन्दर को दर्पण में इनका मुँह तो दिखला दें,-किस मुँह से ये ऐसी कठोर बात कह रहे हैं?

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री मद्भाग० 7/7/38
  2. तैति० उप्० 2/5/2
  3. श्री0 भा0 10/29/18

संबंधित लेख

गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः