गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15पूर्व श्लोक में ज्ञानामृत का वर्णन किया; तदनुसार बताया गया कि ज्ञातामृत की प्राप्ति से विश्व का विस्मरण सम्भव है। राग-निवृत्ति ही सर्वज्ञता का मूल माना जाता है। आत्मा सर्वार्थवभासनशाली है तथापि रागादि प्रतिबन्धों के कारण सर्व-ज्ञान-शून्य होकर इन्द्रियों द्वारा सीमित ज्ञान प्राप्त करता है; रागादि प्रतिबन्ध दूर हो जाने पर पुनः आत्मा का ज्ञान भी निस्सीम हो जाता है। बौद्ध-सिद्धान्तानुसार रागादि प्रतिबन्ध की निवृत्ति के लिए प्रतिपक्ष-भावना चाहिए; अग्नि ज्वालादि का प्रतिपक्ष सलिल है; इस प्रतिपक्ष सलिल की अभिवृद्धि से ज्वालादिक्रमेण अपचीयमान होते हैं; जैसे-जैसे जलादि बढ़ता है वैसे-वैसे ज्वालादि शान्त होते हैं। जलादि के विशेष बढ़ जाने पर ज्वालादि एक दम प्रशान्त हो जाते हैं; इसी तरह प्रतिपक्ष का चिन्तन करने से रागादि का अत्यन्त विनाश हो जाता है। बौद्ध-मतानुसार प्रतिपक्षनैरात्मय-भाव है; ‘सर्व शून्यम्, आत्माणि नास्ति, अनात्मापि नास्ति सर्वन्नास्ति’ इस प्रकार की जो प्रतिपक्ष-भावना है उससे रागादि की निवृति मानते हैं; परन्तु सिद्धान्ततः ये सब बात बनती नहीं; नैरात्मय-भावनाभ्रम है। धर्मकीर्ति का वचन है, ‘निरुपद्रव भूतार्थ स्वभावस्य विपर्ययैः। बुद्धि तत्त्व-पक्षपातिनी होती है। वाचस्पति मिश्र कहते हैं ‘तत्त्व पक्षपातो हि स्वभादोधियाम्’ संसार की समस्त कल्पनायें, भावनायें अनादिकाल से बद्धमूल हैं; जैसे भड़भूजे की भाड़ में रखे हुए बीज के अस्तित्व में ही संशय है-उसमें अंकुर उत्पन्न होने की, नाल, पत्र, पुष्प, फल लगने की कल्पना सर्वथा निर्मूल है वैसे ही रागादि दावानल से दग्ध हीयमान अन्तःकरण के बीच शान्ति, विरक्त एवं भक्ति उत्पन्न हो और स्थिर रहे यही कठिन है; फिर उसके प्रफुल्लित होने की तो आशा ही कैसे की जा सकती है? यह असम्भाव्य है। इस असम्भावना को दूर करने के लिए ही कहा गया है- ‘निरुपद्रव भूतार्थ स्वभावस्य विपर्ययैः अर्थात, संशय विपर्यय आदिकों से अनास्कंदित भूतार्थ, यथार्थ वस्तु है विषय जिनका ‘भूतं अबाधितं यथार्थभूतं वस्तु विषयो यस्य’ ऐसा भूतार्थ स्वभाव निरूपद्रव जो बोध होता है उसका विपर्यय बोधों से बाध नहीं होता। ‘यत्न-वत्त्वेऽपि’ बड़े-बड़े यत्न करने पर भी उनके द्वारा उनका बाध नहीं हो सकता क्योंकि ‘बुद्धेस्तत्पक्षपाततः’ बुद्धि तत्त्व-पक्षपातिनी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रमाणवार्तिक, पृष्ठ 144