गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 406

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 15

गोपाङनाएँ कह रही हैं, हे नाथ! अनेकानेक विघ्न-बाधाओं से व्यथित होकर हम यहाँ वृन्दारण्य में आई और आप यहाँ से अन्तर्धान हो गए। ऐसे समय में मानिनी गोपाङनाओं के मन में भगवत्-कथन का स्फुरण होता है मानों भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कह रहे हैं, ‘हे मानिनियो! तुम्हारे गर्व के कारण ही तो हम अन्तर्धान हुए हैं। अभी तो तुम्हारा गर्व कुछ शिथिल भी है परन्तु हमारे दर्शन के अनन्तर ही तुम गर्व-गिरि-श्रंग पर आरूढ़ हो जाओगी।’ वे उत्तर देती हैं, हे नाथ! हम तो आपका अनुनय-विनय उन सखियों के हेतु कर रही हैं जो ‘गतो यामः गतं दिनम्’ गिन-गिनकर अपना समय व्यतीत कर रही हैं। हम अपने लिये आपको नही बुला रही हैं। भगवान् के सामने भी जो विनम्र नहीं होती वह मानिनी गोपिका है। यह ‘मान’ ही उसका भूषण है; मानिनी ने अपने स्वभाव को त्यागकर ‘नय मां यत्र ते मनः’ ‘जहाँ आपकी इच्छा हो वहीं ले चलो’ जैसी उक्ति की; यह भाववैपरीत्य ही भगवान् के अन्तर्धान का हेतु हुआ।

गोपाङनाएँ विभिन्न भाववतो, तामस-तामसी, सात्त्विक तामसी एवं राजस-तामसी थीं; देव-निन्दक सात्त्विक-तामसी कहलाई; ये विधाता को ही ‘जड़’ कहकर निन्दा करती हैं। राजत-तामस-भाववती आत्म-निन्दक हुईं; ये अपने सौन्दर्य-माधुर्य-सौरस्य को व्यर्थ समझती हैं, अपने जीवन को ही भारस्वरूप समझकर अपने को ही कोसने लगती हैं; ये बार-बार कहती हैं, हे सखि! अपने कृष्णसार पतियों के साथ आने वाली ये हरिणियाँ धन्य-धन्य हैं; ये किरातिनियाँ भी धन्य-धन्य है जो श्रीकृष्णचन्द्र के श्रीमुख का दर्शन स्वेच्छा करती हैं और एक हम हैं जो यहाँ गोकुलधाम की चहारदीवारी के भीतर विलाप करती हुई कोटि-कोटि कल्पतुल्य समय कथंचित् व्यतीत करती हैं।

हमारे गोपाङना-जन्म से तो यह हरिणी एवं किरातिनी का जन्म भी श्रेष्ठ है। तामस-तामस-भाववती गोपाङनाएँ ही सर्वोत्कृष्ट मानी गई हैं; यही मानिनी नायिकायें हैं। लोकोत्तर प्रेमोद्रेक के कारण एक प्रकार की अवष्टम्भकता आती है, मन, बुद्धि एवं चित्त की गति अवरुद्ध हो जाती है; भगवत् विप्रयोग के कारण एक प्रकार की मूर्च्छा, स्वरूप-विस्मरण, विश्व-विस्मरण, सर्व विस्मरण, सर्वावरण, सर्वाच्छादन होता है। यही वह तामसी स्थिति है जो प्रेम-मार्ग में अत्यन्त वन्दनीय है। तामस-तामस-भाववती गोपाङनायें भगवान् की ही निन्दा करती हैं। अपने प्रेमोद्रेक में वे भगवान् के प्रति कितव, शठ, धूर्त आदि सम्बोधनों का प्रयोग करती हुई भगवान् को ही दुःख-समुद्र कहती हैं; यहाँ तक कि उनके प्रति अपने प्रेम को भी गलत बताने लगती हैं। यह लोकोत्तर उच्च-भाववती गोपाङनायें सर्ववन्दनीय हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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