गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15श्रीकृष्ण कानन में विहार कर रहे हैं अतः विप्रयागजन्य संताप से गोपाङनाओं का मुख-कमल कुम्हला गया है, मलिन हो गया है; गोप-वनिताओं की मुख-छवि की मलिनता का कारण बना हुआ वृन्दावन-कानन ही कुत्सित है। और वस्तुतः वृन्दावन-धाम सम्पूर्णतः ही अलौकिक है। गोपाङनाऐं अनेकानेक कल्पनायें करती हैं; भिन्न-भिन्न हेतुओं से उनमें विभिन्न भावनाओं की स्फूर्ति होती है; प्रेमोद्रेक के कारण विचित्र अपस्मार होता है। ललिता, विशाखा आदि सखियाँ राधारानी से पूछ रही हैं, हे राधे! तुमको कौन रोग हुआ है कि तुम क्षण-क्षण में मूर्क्षित हो जाती हो; तुम्हारी बुद्धि मूढ़, तमःपरिप्लुत हो जाती है? अथवा तुमको कोई ऐसा दृढ़ अभिनिवेश हो गया है जिसके वियोग में तुम्हारी यह दशा हो रही है? राधारानी उत्तर देती है- न मूढ़ धीरस्मि न वा दुराग्रहा शारीरभोगेषु न चातिलालसा। अर्थात् हे सखी! न् मेरी बुद्धि ही मूढ़ हुई है, न मुझको किसी प्रकार का दुराग्रह है, न किसी प्रकार के शारीरिक सुख की ही लालसा है तो भी इन व्रजेन्द्रनन्दन मदन-मोहन, श्यामसुन्दर के ही लोकोत्तर गुणगत ऐसे हैं जो मुझको बलात् अपस्मार-की स्थिति में पहुँचा देते हैं। बड़े सौभाग्यशाली हैं वे जिनको ऐसी अप्समार-अवस्थायें प्राप्त होती हैं। इस स्थिति की प्राप्ति, भक्त की परम वांछा है। चक्रवर्ती नरेन्द्र दशरथ भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र के वियोग में दशमी दशा को प्राप्त हुए, भक्त के लिए यह भी सौभाग्यातिशय ही है। अनेक भक्त दशमी दशा को न प्राप्त होते हुए भी उससे कोटिगुणाधिक संतान का अनुभव करते हैं; यह संताप ही उनको प्रिय होता है। श्रीजीव गोस्वामी लिखते हैं, “वही अवस्था अत्यन्त महत् है जहाँ पहुँचे हुए भक्तों को भगवत्-संप्रयोग से भगवद्-विप्रयोग-जन्य मरणान्तक या उससे कोटिगुणाधिक दुःख भी परम तुष्टिकारक सुखद प्रतीत होता है; यही उनकी लोकोत्तर दशा है।” ‘उदीक्षतां उत्कंठया ईक्षमाणानाम्’ जो उत्कण्ठापूर्वक निहार रही हैं। श्रीकृष्ण-मुखचन्द्र के अदर्शन से इनके लिये त्रुटिपरिमित काल भी युगवत् प्रतीत हो रहा है-‘त्रुटिकाल एक क्षण का सत्ताईस सौवाँ भाग है-- युग द्वादश सहस्राब्द (बाहर हजार वर्षों का) एक काल है। गोपाङनाएँ बाट जोह रही हैं कब भगवान वृन्दावन से लौटें? कब हमें उनके मंगलमय मुखचन्द्र का दर्शन हो? |