गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15अलं कं ब्रह्मात्मकं सुखं येषां ते अलका ब्रह्मविद्;-जिनका सुख अत्यर्थ सुख है; ‘अलं अत्यर्थं सुखम्’ ब्रह्मविदितर सम्पूर्ण प्राणियों के सुख क्षुद्र एवं परिक्षिन्न होते है; ब्रह्मविद् का सुख ही अनन्त एवं अपरिछिन्न है; अतः ‘अलकाः ब्रह्मविदः; अलकानां अवली, अलकावली’ ब्रह्मविदों की अवली, ब्रह्मविदों की मण्डली, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के मुखचन्द्र की आभा, शोभा, कांति का रसास्वादन करती है। हे श्यामसुन्दर! आपका यह कुटिल कुंतल समावृत श्रीमुख ‘वनरुहाननं बिभ्रदावृतं’ है; आपके श्रीमुख नील पंकज पर अलकावलीरूप भ्रमर-मुखारविन्द के मकरन्द का पान करते-करते यह भ्रमर मण्डली इतनी अधिक बेसुध हो गई है कि वह अपने स्वभाविक गुंजार को भी भूल बैठी है। ‘कुटिलकुंतलं श्रीमुखं उदीक्षतां उच्चैर्निरीक्षमाणानां यो ति सहते अभिभवित पक्ष्मकृत् स एव अजडः कुटिलकुंतल संश्लिष्ट आपके श्रीमुख का दर्शन करने-वालों में भी वही अजड़ है, वही रसिक है, वही विवेकी है जिसने अपने पक्ष्मों का भी निकृन्तन कर डाला है क्योंकि ये पक्ष्म बार-बार गिरकर प्रियतम-मुखचन्द्र के दर्शन में विघ्न डालते हैं। जनक-नन्दिनी जानकी भगवती, भगवान् श्री राघवेन्द्र रामचन्द्र के मुखदर्शन करने लगी तो- ‘भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि तजेउ दृगंचल।।’[1] तात्पर्य कि वही रसिक है जो निमेषेन्मेष-विवर्जित नयमों से श्रीमुख-दर्शन में तन्मय हो जाय। गोपाङनाएँ कह रही है कि हमारा दुर्भाग्य है कि आपके अदर्शन में घोर व्यथा को सहती ही हैं परन्तु दर्शन होने पर भी अपने इन पक्ष्मों के कारण अबाध सुख, अबाध आनन्द प्राप्त नहीं कर पातीं। अनुरागियों के, प्रेमियों के मन की विचित्र अवस्थाएँ होती हैं-स्नेह, कोप, ईर्ष्या, प्रणय आदि परस्पर विरोधीभाव भी एक साथ ही उद्बूद्ध हो जाते हैं। दिङ्नागकृत ‘कुन्दमाला’ नामक ग्रन्थ तथा भवभूति के ‘उत्तररामचरित्र’ में सीता-वनवास का वर्णन है। शम्बूक-वधप्रसंग से भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र दण्डकारण्य पधारे और पंचवटी के उस वन में पधारे जहाँ भगवती सीता के साथ वनवास के अवसर में रह चुके थे। वहाँ के हाथियों को, वृक्ष एवं लताओं को जिनको जनकसुता जानकी ने पुत्रवत् पाला था, देखकर सीता की स्मृति से विह्वल होकर वे मूच्छित हो गये। भगवती सीता अपनी सखी वासन्ती के साथ वहाँ अदृश्य रूप से उपस्थित थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, बाल0 229/4