गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15गोपाङनाएँ कर रही हैं, हे प्रभो! हे सर्वेश्वर! हे प्राणधन! आप तो वृन्दावन धाम में अटन कर रहे हैं और हम आपके विप्रयोग जन्य तीव्र ताप से अत्यन्त संतप्त हो रही हैं; आपके अदर्शन से हमारे लिये त्रुटिकाल भी युगवत् हो रहा है; हे मदनमोहन! अब तो कृपा कर दर्शन दें। ‘कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्।’ व्रजाङनाएँ कह रही हैं, हे श्यासुन्दर! आपके दर्शन में भी सुख नहीं है। ‘न दृष्टेन भवता लभ्यते सुखम्’ और अदर्शन में तो क्षण का सप्तविंशतिशततम काल, त्रुटि भी युगवत् प्रतीत होता है। जिस समय आपके मुखचन्द्र के दर्शन होने भी लगते हैं उस समय ‘कुटिलकुन्तलं श्रीमुख च ते जड उदीक्षतां उच्चेर्निक्षमाणानां पक्ष्मकृद् विधाता जडः सोपि अत्यन्तं दुःखं करोति’ मूर्तिमती निशा-स्वरूप कुटिल अलकावली से समावृत आपके मुखचन्द्र की विशिष्ट शोभा के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक उत्कंठित प्राणी विशेषतः रसिक अनुरागीजन, हम गोपाङनाएँ जड़ विधाताकृत अपने पक्ष्मों के ही कारण संतप्त रहती हैं। इन पक्ष्मों को बनाने वाले विधाता, ब्रह्मा अवश्य ही जड़ हैं; यदि विधाता रसिक होते तो उस आनन्द को समझ सकते जो आपके इन कुटिल कुन्तल समावृत मुखचन्द्र की विशिष्ट शोभा को निहारने से प्राप्त होता है:- वात्सल्यभाववती व्रजेन्द्र-गेहिनी, नन्दरांनी यशोदा, सख्य-भगवती व्रजाङनाएँ एवं दुर्योधन, अर्जुन सबको भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के मंगलमय मुखचन्द्र के दर्शन से अपनी-अपनी विभिन्न भावनानुसार जो विभिन्न स्वाद प्राप्त होता था उसको अन्य कौन समझ सकता है? सख्य-भाववती गोपाङनाएँ कह रही हैं, हे श्यामसुन्दर! विधाता नहीं जानते कि हमको आपके कुटिल कुन्तल समावृत मुखचन्द्र दर्शन से कितना अद्भुत स्वाद प्राप्त होता है। जड़, दर्शन के समय में भी सुख की पूर्णतः उपलब्धि नहीं हो पाती। हे श्याम-सुन्दर, आपके ये कुटिल कुन्तल ‘कुं, भूमिं तलयति अधीनयति स्वशोभया इति कुन्तलम्।’ अपने सौन्दर्य-माधुर्यं से भूमि को भी नीचा दिखा देने वाली ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, बाल0 184/3