गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15‘हंस’ हो वह परम मंत्र है जिसे प्राणी निरन्तर जपता रहता है। ‘हकारेण बहिर्याति सकारेणाविशेत्पुनः’ ।।61।। ‘हंसहंसेत्यमुंमन्नं जीवो जपति सर्वदा’ (ध्यानबिन्दूपनिषद्) अर्थात् हकार से श्वास बाहर जाता है, सकार से श्वास भीतर जाता है, प्राणापान की इस निरन्तर गति से ‘सोहम्’ शब्द सदा होता रहता है। प्राण एवं आपान, दोनों ही जिस आधार पर टिके हैं वही वाक्यार्थ है, वही परब्रह्म हैं, वही परमेश्वर हैं, वही भगवान् हैं, राम हैं, कृष्ण हैं। लक्ष्यार्थ माने ‘तत्त्व’, ‘तत्त्व’ पद का वाक्यार्थ क्या है? ‘त’ सभी पदार्थ है ‘त्वं’ भी पदार्थ है; दोनों का वाक्यार्थ है अभेद। जैसे, समुद्र ही तरंगों के उदित एवं विलीन होने का आधार है, वैसे ही ‘प्राणापान’ तप तरंगों के उदित एवं लय का एकमात्र आधार, सर्वाधिष्ठान, परात्पर परब्रह्म परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। अतः ‘भवस्य सर्वस्यैव’ आप ही सम्पूर्ण संसार के प्राणों के प्राण हैं; जैसे प्राण विना प्राणी निस्सार हो जाता है, वैसे ही आप बिना जगत् निष्प्राण हो जाता है। ‘सुरेशलोकोऽपि न वै स सेव्यताम्’[1] जहाँ भगवान् की मंगलमयी कथा-सुधा का पान करने को न मिले, जहाँ भगवद्-भक्तों का संग न मिले, वह यदि इन्द्रलोक भी हो तो भी वहाँ न रहें। ‘भाति, वाति अनिति सर्व काननं सर्व जगत्-यस्मात् स-भवान्’-सम्पूर्ण संसार, सम्पूर्ण वन, वृन्दावन धाम सब आप ही से देदीप्यमान हैं, आप ही से सुगन्धमय है, आप ही से जीवनयुक्त है। मानव शरीर में ही दिव्य सुगन्ध भी है, विचित्र दुर्गन्ध भी है। शास्त्रानुमोदित सन्मार्ग का अनुसरण करते हुए सत्कर्म द्वारा प्रसारित यश ही दिव्य सुगंध है; विमार्ग का अनुसरण करते हुए अकर्म-कुकर्मजन्य अपयश ही दुर्गन्ध है। प्राणी के यशस्वरूप सुगन्ध से लोकान्तर प्रसन्न होते हैं और अपयशरूप दुर्गन्ध से लोकान्तर खिन्न हो जाते हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करने वाले हैं, आप ही सम्पूर्ण जगत् को जीवित, प्रफुल्लित करने वाले हैं। ‘भवति सर्व जगद् यस्मात् इति भवः, अनिति चेष्टते जगत यस्मात इति अन: भवश्चासौ अनश्चेति भवान' आप ही से सम्पूर्ण जगत उद्भूत है। ‘तज्जलानितिशान्त उपासीत्’[2] सम्पूर्ण जगत् परमात्मा से ही उत्पन्न होता है, परमात्मा से ही सचेष्ट होता है, और परमात्मा में ही लीन हो जाता है अतः सम्पूर्ण जगत् ही तज्जलान् है। एतावता भगवान् श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति एवं स्थिति के मूल कारण भी हैं और आधार भी हैं अतः त्रुटिकालपर्यन्त श्रीकृष्ण-वियोग असह्य है। |