गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15‘तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वुन्दावनगोचरेण।’[1] और भगवान् श्रीकृष्ण प्राण के भी प्राण हैं। न केवलं भवस्य शंकरस्यैव अपितु सर्व स्वैय भवस्य भवान् अनः प्राणः’ वे केवल हमारे ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के प्राण हैं, भव-शंकर के भी प्राणों के भी प्राण हैं; उनके त्रुटिकाल-पर्यन्त वियोग में भी जीवन क्योंकर सम्भव हो सकता है? प्राण के वियोग में ही दारुण दुःख होता है। वेद-वाक्य है, ‘न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन्। लौकिक प्राण एवं अपान प्राणी के जीवन-धारण का कारण नहीं है; जीवन का मूल आधार वह इतर है जिस पर प्राण और अपान दोनों ही आश्रित हैं। प्राण एवं अपान के झूले में झूलने वाला वह इतर ही प्राणों के प्राण, सुख के सुख राम हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही वह सूत्रधार हैं जिसके आधार पर प्रणापान क्रमबद्धतः उदित एवं विलोन होते रहते हैं। ‘योगवासिष्ठ’ में ‘प्राणोपासना’ का बड़ा महत्त्व बताया गया है; इस उपासना का उपदेश काकभुशण्डीजी ने वशिष्ठ-जी को किया; ‘हंसस्सोऽहम् हंसस्सोऽहम्’ का अनुभव करना ही प्राणोपासना है। ‘एक एव हंति गच्छति इति हंसः शुचि षद्बसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथि-र्दुरोणसत्। नृषद्वरसहतद्सव्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्।।’[4] ये सब सूर्य के नाम हैं; सूर्य के नाम होते हुए भी सब परब्रह्म के भी नाम हैं। |