गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 39

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 1

अर्थात, एक वृक्ष पर शोभन पंखयुक्त दो पक्षी, हंस निवास करते हैं। इन दोनों में साजात्य एवं सख्य सम्बन्ध भी है। तात्पर्य कि इस शरीररूपी एक ही वृक्ष पर जीवात्मा एवं परमात्मारूपी दो हंस निवास कर रहे हैं। दोनों में परस्पर सख्य एवं साजात्य तथा तादात्म्यभाव है-परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् पालक सखा और जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान पोषित सखा है। दोनों ही सर्वदा संग रहते हैं तथापि परमात्मा-सखा पुष्कर-पत्र-इव सदा असंग ही रहता है। ‘असंगोनहि सज्यते’[1] परमात्मा असंग है, पुष्कर-पत्रवत निर्लेप है। शंकराचार्य कहते हैं, ‘उदासीनः स्तब्धः सत तमगुणः संगरहितः। भवांस्तातः कातः परमिहभवेज्जीवनगतिः।।’

अर्थात, हे प्रभो! आप अनन्त ब्रह्मण्ड-नायक हैं। आप ही हमारे पिता हैं तथापि आप सर्वदा निःसंग, उदासीन, स्तब्ध, निर्गुण, निर्विकार हैं। हे तात! इस स्थिति में पुत्रों की गति अवश्य ही अत्यन्त शोचनीय होगी। हे तात! आप हममें प्रेम न करें तथापि हमारे हृदय में जो आपका निवास-स्थान है सदा ही विराजमान रहे। आपके विराजमान रहने से भी हमारा परम कलयाण हो जायगा। जिस हृदय में सर्वेश्वर, सर्वाधिष्ठान, स्वप्रकाश, परमात्मा प्रकट हो जाते हैं उसके सम्पूर्ण दुःख-दारिद्रî का स्वभावतः ही समूल उन्मूलन हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-

“मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आई बहु चोरा।”

अर्थात, हे प्रभु! हमारा हृदय यद्यपि वस्तुतः आपका ही निवास-स्थान है तथापि वहाँ बहुत से चोर घुस आए हैं।

“नहिं माने विनय निहोरा, नाथ करहिं बरजोरा।
कहैं तुलसीदास सुनु रामा, लूटहिं तस्कर तव धामा।”

हे नाथ! तस्कर हमारे अनुनय-विनय का नहीं सुनते; हे राम! वे तुम्हारे ही भवन को लूटे ले रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृ.उ. 3।9।26

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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