गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1भगवती महालक्ष्मी ने अपनी वरमाला उन्हीं के गले में डाल दी। भगवान श्रीमन्नारायण ने भी उनको अत्यन्त स्नेह व सम्मान के साथ अपने वक्षःस्थल में निःसपत्न स्थान दिया। भगवान विष्णु की वामावर्त सुवर्णवर्णा रोमराजि भगवती लक्ष्मी की ही स्वरूपभूता है। ‘हारहास-उरसि स्थिर विद्युत्’ उपमावाली महाल्क्षमी सदा ही श्रमन्नारायण के वक्षःस्थल पर रहने वाली, वैकुण्ठधाम की एका-स्वामिनी, अनन्तानन्त ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री, महालक्ष्मी स्वयं ही विनय-विनम्रा हो व्रजधाम में अधिकाधिक श्रयण कर रही हैं। एतावता स्वभावतः ही व्रजधाम अनन्त धन-धान्य से तथा व्रजवासी-जन अनन्तानन्त शक्तियों से परिपूर्ण हो रहे हैं अतः व्रजधाम विशेष उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है, व्रजधाम का प्रत्येक प्राणी परम पुरुषार्थ को प्राप्त हो रहा है, जंगल में भी मंगल हो रहा है। ‘सर्वेषामेव मंगलं जातं परम् दैवहतानां अस्माकमेव महद्दुःखमेतद्’' तब भी दैवहत हम व्रजाङ्गनाएँ आपकी परम अनुरागिणी एवं परम प्रेयसी होते हुए भी परम दुःखिनी हैं। तत्रापि, अधिक दुःख की बात यह है कि आप सर्वज्ञ, शिरोमणि एवं परम दयालु होते हुए भी हमारे दुःख का निवारण नहीं करते। दयालु भी जिसके प्रति कठोर जो जाय, सर्वज्ञ भी जिसके लिये ज्ञानहीन हो जाय उसके दुर्भाग्य के पारावार को कौन जान सकता है? हे दयित! ‘दृश्यताम प्रत्यक्षीभूय’ आप प्रत्यक्ष होकर हमारे इस दुःख को देखें। ऐसा न हो कि आपके विप्रयोगजन्य तीव्र सन्ताप से सन्तप्त हो हम आपके मंगलमय मुखचन्द्र के दर्शन बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ। भगवान श्रीकृष्ण की विरहजन्य वेदना से अत्यन्त संतप्त होती हुई भी गोपाङ्गनाएँ उनसे अपने दुःख निवारण हेतु नहीं अपितु केवल प्रत्यक्षीभूत होने के लिये ही प्रार्थना करती हैं क्योंकि भगवान परदुःखकातर हैं; अतः एक बार प्रत्यक्ष होकर गोपाङ्गनाओं के असीम दुःख का अनुभव कर लेने पर वे अवश्य ही स्वभावतः उसका निवारण कर देंगे। ‘तावकास्त्वयि धृतासवस्तवां विचिन्वते’ हे श्यामसुन्दर! हम आपकी सखियाँ आपके दर्शन से वंचित होकर आपके विप्रयोगजन्य तीव्रताप से सन्तप्त हो रही हैं। हे मदन-मोहन! आविर्भूत होकर हमारे कष्ट का अनुभव तो करो। सहसा ही, गोपाङ्गनाएँ अनुभव करती हैं कि भगवान श्रीकृष्ण उनसे प्रश्न कर रहे हैं कि ‘हे गोपाङ्गनाओ! केवल मात्र तुमसे ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व से ही हमारा सख्य है।’ वेद-वाक्य है, द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋ. 1।164।20