गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का जन्म मथुरा में ही हुआ था तथापि उनका लालन-पालन व्रज में, व्रजेन्द्र नन्दराय एवं यशोदारानी के मंगलमय अंक में हुआ अतः व्रजधाम का ही उत्कर्ष विशेष बढ़ा। भगवान श्रीकृष्ण के मथुरास्थ-आविर्भाव के कारण भी व्रजधाम का ही उत्कर्ष बढ़ा। ‘व्रजो जयति सदैव किन्तु तव जन्मना अधिकं जयति’ स्वभावतः सर्वातिशयी उत्कर्ष को प्रापत व्रजधाम भी भगवान श्रीकृष्ण के आविर्भाव के कारण विशेष उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है। ‘श्रयते इन्दिरा शश्वदत्र हि।’ पद का एक अन्वय ‘यया इन्दिरा अति श्रयते’ भी हो कसता है और ‘जयति ते अधिकं जन्मना व्रजः’ पंक्ति में प्रयुक्त ‘अधिक’ शब्द संयुक्त कर ‘अन्न शश्वद् अधिकं श्रयते’ भी सम्भव है। अनन्त ब्रह्मामाण्ड की ऐश्वर्याधिष्ठात्री वैकुण्ठेश्वरी भगवती इन्दिरा व्रजधाम में अधिकाधिक रह रही हैं। वैकुण्ठनाथ भगवान श्रीमन्नारायण विष्णु व्रजधाम में श्रीकृष्णस्वरूप में अवतरित हुए हैं अतः परिपरायण, सती साध्वी, वैकुण्ठेश्वरी भगवती इन्दिरा भी अपने पति का अनुसरण करती हुई व्रजधाम में ही निरन्तर अधिकाधिक आश्रयण करती हैं एतावता व्रजधाम का ऐश्वर्य प्रतिक्षण सवंर्द्धमान है। गोधन, सर्वातिशायी उत्कृष्ट धन हैं; ‘गोमये वसते लक्ष्मीः।’ मान्य है कि गोबर में लक्ष्मी का वास है। गोबर ही खाद बनता है; उत्तम खाद से उत्तम खेती होती है; अन्न-धन से ही देश समृद्ध होता है। भागवत-वाक्य है, ‘तत आरभ्य नन्दस् व्रजः सर्वसमृद्धिमान’[1] भगवान श्रीकृष्ण के प्रादुभार्व-काल से ही व्रजधाम की समृद्धि अनन्त प्रकार के धन-धान्य एवं विविध प्रकार के ऐश्वर्य ‘अनपेक्षमाणापि’ व्रजवासियों द्वारा अनपेक्षित होते हुए भी स्वभावतः सततन संवर्द्धमान होते रहें। भगवती लक्ष्मी स्वभावतः ही उदासीन का वरण करती हैं। समुद्र-मन्थन के प्रसंग से महालक्ष्मी का आविर्भाव हुआ। लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये सभी उत्सुक हो उठे। अन्ततोगत्वा यह निश्यय किया गया कि लक्ष्मी स्वयं ही जिसका वरण कर ले वही उनको प्राप्त कर सकता है। अपने सुकोमल हस्तारविन्दों में अरविन्दमाला लिये हुए भगवती लक्ष्मी उपस्थित देव-समुदाय पर दृष्टि घुमाती हुई विचार करने लगीं-कोई ऐश्वर्यादि युक्त होते हुए भी कामादि दोषाक्रान्त है; कोई अचिन्त्य, अनन्त कल्याण गुण-गण-संयुक्त तथा सर्वनिरेक्ष स्वयं शिव होते हुए भी अमंगल वेषधारी है, कोई परम सुमंगल होते हुए भी अत्यन्त निरपेक्ष है, ‘सुमंगलः कश्चन काङ्क्षते हि माम्’[2] वह मेरी आकांक्षा ही नहीं करता। श्रीमन्नाराण ही पूर्णतम, पुरुषोत्तम, आप्तकाम, पूर्णकाम, परम-निष्काम, सर्वगुण-सम्पन्न, सर्व-ऐश्वर्य-सम्पन्न, परम सुमंगल हैं तथापि सर्व-निरपेश भी हैं। |