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गोपी गीत -करपात्री महाराज
गोपी गीत 13
इस प्रकार का प्रणाम ही उत्कृष्ट प्रणाम है। आप्तकाम, पूर्णकाम, परम निष्काम भगवान् भी भाव के भूखे हैं। यह भाव-भीना एक प्रणाम भी मोक्षप्रद है-
‘एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामि न पुनर्भवाय।।[1]
प्रणत-जन भी दो प्रकार के होते हैं; एक सकाम, दूसरे निष्काम। भगवान् सत्य-संकल्प हैं, सर्वकामप्रदाता हैं। यदि किसी कामनावश भी अन्य के सम्मुख नमन करता ही हो तो वह नमन भी किसी लौकिक प्राणी के प्रति न कर भगवत् चरणारविन्द में ही करना चाहिए। प्राणिमात्र स्वयं ही अपूर्णकाम है; जो स्वयं अपूर्णकाम है, वह अन्य की कामना-पूर्ति क्यों कर सकता है? लौकिक जनों के दान ‘शकायवास्याल्लवणायवास्यात्’ ही होते हैं।
‘अकाम्ः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्।।’[2]
अर्थात, तीव्र भक्तियोग के द्वारा ही भगवान् सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करते हुए मोक्ष भी प्रदान करते हैं।भगवत्-चरणारविन्द प्रणत-कामदं हैं, ‘कामं ददाति इति कामदं, कामं दाति खण्डयति इति कामदं।’
‘श्रुतिस्मृती ममैवाश्रे यस्ते उल्लंघ्य वर्तते।
आज्ञोच्छेदी मम द्रोही मद्भक्तोऽपि न वैष्णवः।।’
अर्थात, श्रुति-स्मृति-लक्षणा प्रभु-आज्ञा का सर्वथा पालन ही तीव्र भक्ति-योग है; आज्ञा का उच्छेदक ही भगवत्-द्रोही है, वह न भक्त है, न वैष्णव।
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