गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12सनकादि महर्षिगण कहते हैं- ‘कामं भवः स्व वृजिनै र्निरयेषुनः स्तात्, अर्थात हे प्रभो! जैसे मलिन्द अरविन्द-मकरन्द-पान में तल्लीन हो जाता है, वैसे ही, यदि हमारा भी चित्त आपके चरणारविन्द-मकरन्द-पान में तन्मय हो जाय और फिर, यदि निज दुष्कर्मों के कारण हमको नरक में भी वास करना पड़े तो उसकी चिन्ता हमें न होगी। वेदान्त का भी यही सिद्धान्त है; ‘या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागर्ति सयंमी। अर्थात जो सम्पूर्ण लौकिक जनों के लिए रात्रि है उसमें ज्ञानी जागता है; जहाँ ज्ञानी जागता है वहीं लोक-रत-जन सोते हैं। ‘मोह निसा सबु सोवनि हारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा। अर्थात प्राणी मात्र मोह रूपी रात्रि में सोते हुए विविध प्रकार के स्वप्न देखते हैं। इस स्वप्न जनित मोह-‘माया, ऐश्वर्य-विलास से सहज वैराग्य ही जीव की जागृति का परिचय है। |