गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 340

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 12

सनकादि महर्षिगण कहते हैं-

‘कामं भवः स्व वृजिनै र्निरयेषुनः स्तात्,
चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत।
वाचश्च नस्तु लसिवद् भवदंघ्रिशोभाः,
पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्घ्र:।।’[1]

अर्थात हे प्रभो! जैसे मलिन्द अरविन्द-मकरन्द-पान में तल्लीन हो जाता है, वैसे ही, यदि हमारा भी चित्त आपके चरणारविन्द-मकरन्द-पान में तन्मय हो जाय और फिर, यदि निज दुष्कर्मों के कारण हमको नरक में भी वास करना पड़े तो उसकी चिन्ता हमें न होगी। वेदान्त का भी यही सिद्धान्त है;

‘या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागर्ति सयंमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशपश्यतो मुनेः।।’[2]

अर्थात जो सम्पूर्ण लौकिक जनों के लिए रात्रि है उसमें ज्ञानी जागता है; जहाँ ज्ञानी जागता है वहीं लोक-रत-जन सोते हैं।

‘मोह निसा सबु सोवनि हारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।
जानिय तब हिं जीब जग जागा। जब सब विषय बिलास विरागा।।’[3]

अर्थात प्राणी मात्र मोह रूपी रात्रि में सोते हुए विविध प्रकार के स्वप्न देखते हैं। इस स्वप्न जनित मोह-‘माया, ऐश्वर्य-विलास से सहज वैराग्य ही जीव की जागृति का परिचय है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री0 भा0 3/14/49
  2. गीता: 2/69
  3. मानस, अयोध्या 92/2/4

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
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