गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12इसी तरह, कृष्णाभिरमण में अनुकूल होने के कारण ही अभिसारिका गोपाङनाओं को कृष्णपक्ष ही रुचिकर होता है। ‘प्रेम-पत्तन’ का मूल-मंत्र यही है कि जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन एवं सम्मिलन में सहायक सिद्ध हो वह सर्वोत्कृष्ट, परमादरणीय एवं परमस्पृहवीय है और जो भगवद्दर्शन एवं सान्निध्य में बाधक हो वह सर्वथा निन्द्य एवं त्याज्य है। ‘न किंचित् साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनो मम। अर्थात अन्तर्मुखी धोर साधुपुरुष भुक्ति-मुक्ति-निरपेक्ष होते हुए भी भगवद्दर्शन की कामना करते हैं। ‘अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चऊ निरबान। कुन्ती देवी कहती हैं- ‘विपदः सन्तु नः शश्वतत्र तत्र जगदगुरो। अर्थात्, हे जगद्गुरो! जहाँ-जहाँ जब-जब हमारा जन्म हो सदा सर्वदा सर्वत्र ही हमको विपत्ती ही मिले क्योंकि विपत्ति काल में ही आपका दर्शन सम्भव होता है। भगवान् विपद्-परिगृहोत हैं, अनाथ-नाथ हैं:-- ‘विपदो नैव विपद: सम्पदो नैव सम्पद: । अर्थात, लोक दृष्ट्या जो विपदा किंवा संपदा है वह यथार्थ में न तो विपत्ति ही है और न सम्पत्ति ही है। निरन्तर भगवत् स्मरण ही सम्पत्ति तथा भगवद्धिस्मरण ही वस्तुत: विपत्ति है। |