गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12दिन के उदय होते ही बाल श्रीकृष्ण गोचारण हेतु वृन्दाटवी में चले जाते हैं; अस्तु जो दिन भगवत्-विप्रयोग का कारण बन जाता है उससे गोपाङनाओं को सहज ही द्वेष होता है; फलतः वे उसका परिक्षय मनाने लगती है श्री रसिकावतंश लिखित ‘प्रेम-पत्तन’ नामक एक अत्यन्त सुन्दर ग्रंथ है। पत्तन’ शब्द का अर्थ है ‘नगर’। आधुनिक पूणा’ शहर भी किसी समय पुण्य-पत्तन’ कहलाता था। ‘प्रेम-पत्तन’ के सम्पूर्ण यम-नियम सामान्य लोकिक नियमों के सर्वथा विपरीत हैं। उदाहरणतः लोक के तृष्णा सर्वथा निन्द्य एवं त्याज्य है। भगवान् शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरी है ‘स्वर्गपदं किमस्ति? तृष्णा क्षयः’ तृष्णा का क्षय ही स्वर्ग-पद है। ‘प्रेम-पत्तन के व्यहारानुसार तृष्णा ही सर्वोत्तम एवं सर्वाधिक वांछनीय है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के मंगलमय पादारविन्द के दर्शन-हेतु उत्कट तृष्णा का उद्बोधन ही जन्म-जन्मान्तर कृत पुण्य-पुंज का अद्वितीय पुरस्कार है। लौकिक पदार्थ किंवा व्यक्ति में व्यसन ‘पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ का ही प्रेरक है; अतः ज्ञानी जनों द्वारा त्याज्य है किंतु श्रीकृष्णचन्द्र-चरणारविन्दु-दर्शन का व्यसन तो परम ज्ञानी अमलात्मा, आप्तकाम, पूर्णकाम, परमहंस महर्षिगणों के लिए भी अत्यन्त स्पृहणीय है। ज्ञानी शिरोमणि ‘ज्ञानिनां अग्रगण्यं’ श्री हनुमानजी महाराज को भी एक व्यसन हैः- ‘यत्र यत्र रधुनाथकीर्तनम्। जहाँ-जहाँ रघुपति-गाथा चलती हो वहाँ-वहाँ हनुमानजी गद्गद् हो अश्रु-पूरित नयन और मस्तक पर हाँथ बाँधकर नमस्कार करते हुए अवश्य ही पहुँच जाते हैं। यही उनका व्यसन है। |