गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 338

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 12

दिन के उदय होते ही बाल श्रीकृष्ण गोचारण हेतु वृन्दाटवी में चले जाते हैं; अस्तु जो दिन भगवत्-विप्रयोग का कारण बन जाता है उससे गोपाङनाओं को सहज ही द्वेष होता है; फलतः वे उसका परिक्षय मनाने लगती है श्री रसिकावतंश लिखित ‘प्रेम-पत्तन’ नामक एक अत्यन्त सुन्दर ग्रंथ है। पत्तन’ शब्द का अर्थ है ‘नगर’। आधुनिक पूणा’ शहर भी किसी समय पुण्य-पत्तन’ कहलाता था। ‘प्रेम-पत्तन’ के सम्पूर्ण यम-नियम सामान्य लोकिक नियमों के सर्वथा विपरीत हैं। उदाहरणतः लोक के तृष्णा सर्वथा निन्द्य एवं त्याज्य है। भगवान् शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरी है ‘स्वर्गपदं किमस्ति? तृष्णा क्षयः’ तृष्णा का क्षय ही स्वर्ग-पद है। ‘प्रेम-पत्तन के व्यहारानुसार तृष्णा ही सर्वोत्तम एवं सर्वाधिक वांछनीय है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के मंगलमय पादारविन्द के दर्शन-हेतु उत्कट तृष्णा का उद्बोधन ही जन्म-जन्मान्तर कृत पुण्य-पुंज का अद्वितीय पुरस्कार है। लौकिक पदार्थ किंवा व्यक्ति में व्यसन ‘पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ का ही प्रेरक है; अतः ज्ञानी जनों द्वारा त्याज्य है किंतु श्रीकृष्णचन्द्र-चरणारविन्दु-दर्शन का व्यसन तो परम ज्ञानी अमलात्मा, आप्तकाम, पूर्णकाम, परमहंस महर्षिगणों के लिए भी अत्यन्त स्पृहणीय है। ज्ञानी शिरोमणि ‘ज्ञानिनां अग्रगण्यं’ श्री हनुमानजी महाराज को भी एक व्यसन हैः-

‘यत्र यत्र रधुनाथकीर्तनम्।
तत्र-तत्र कृतमस्तकांजलिम्।।
वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनम्।
मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्।।’

जहाँ-जहाँ रघुपति-गाथा चलती हो वहाँ-वहाँ हनुमानजी गद्गद् हो अश्रु-पूरित नयन और मस्तक पर हाँथ बाँधकर नमस्कार करते हुए अवश्य ही पहुँच जाते हैं। यही उनका व्यसन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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