गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1स्वभावतः उत्कर्ष को प्राप्त व्रजधाम आपके आविर्भाव के कारण वैकुण्ठधाम से भी अधिक उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है। वैकुण्ठधाम में प्रभु की अनन्तकोटि व्रह्मण्डोत्पादकता, सर्वेश्वरता, सर्वशक्तिमत्ता एवं परमेश्वरता का ही प्रकाट्य है अतः वहाँ ऐश्वर्य संकुचित हृदय में भगवान के प्रति ममत्व की पूर्णाभिव्यक्ति हो ही नहीं पाती। व्रजधाम में भगवान की माधुर्य-शक्ति का ही अधिकाधिक प्रस्फुरण हुआ है; माधुर्यपूर्ण-स्वरूप में अनुराग सम्भव है क्योंकि प्रेमोत्कर्ष में कुछ धृष्टता आ ही जाती है। अतिशय अनुराग के कारण संकोच एवं भय का पूर्णतः तिरोधान तथा ममत्वपूर्ण अभिन्नता का प्रस्फुरण हो जाता है। कुरुक्षेत्र की युद्धस्थली में भगवान श्रीकृष्ण के विराट्-स्वरूप को देखकर उनका प्रिय सखा अर्जुन भी भयभीत हो क्षमा-याचना करने लगता है। सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं, हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अर्थात्, हे भगवन्! हे प्रभो! आपके इस महत् रूप को न जानकर मैंने आपको अपना सखा समझते हुए स्नेहाधिक्यवशात् ‘हे कृष्ण’ ‘हे सखा’, ‘हे यादव’ आदि असत्कारसूचक सम्बोधनों से सम्बोधित किया; ‘मैं अपराधी हूँ, क्षम्य हूँ।’ व्रजधाम में भगवान श्रीकृष्ण का बाल-सहचर, श्रीदामा तो मात्र इतना ही अनुभव करता है कि कृष्ण हमारा सखा है, वह भी गोपाल है गाय चराता है, हम भी गोपाल हैं, गाय चराते हैं, हम दोनों मिलकर खेल खेलें; मैं हार गया, मैं घोड़ा बना; वह हार गया, वह घोड़ा बने। ‘श्रीमद्भागवत’ में स्पष्ट उल्लेख है-‘उवाह कृष्णोः भगवान श्रीदामानं पराजितः’[2] पराजित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को कन्धे पर बिठाया। श्रीदामा के अनुरागमय हृदय में श्रीकृष्ण के ऐश्वर्यपूर्ण-स्वरूप की कल्पना भी नहीं उठती; श्रीदाम भगवान श्रीकृष्ण के केवल माधुर्यपूर्ण-सख्य का ही अनुभव कर पाता है। भगवान की ऐश्वर्य-शक्ति के विकसित होने पर यह माधुर्य-पूर्ण-लीला संकुचित हो असम्भव हो जाती। |