गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11रे मन! तू व्यर्थ कल्पना से खिन्न हो रहा है। मन उत्तर देता है, “हे निर्बुद्धयः गोपालिकाः’ हे बुद्धि-सम्बन्ध-शून्य गोपालियो! श्याम सुन्दर, मदन मोहन के चरणारविन्द तो स्वतः विकसित कोमल कमल से भी शतगुणाधिक कोमल हैं और वृन्दावन धाम के तृणांकुर, शिल, कुश-काशादि स्वभावतः कठोर एवं कर्कश हैं। गोचारण करते हुए श्रीकृष्ण निरावृत चरणारविन्दों द्वारा ही गोधन का अनुसरण करते हुए वृन्दाटवी में पर्यटन करते हैं अतः तत्-सम्बन्ध-सम्भावना अवश्यंभावी है। गोपालियाँ अपने मन को पुनःसमझाती हैं, ‘रे प्रेमान्ध! श्यामसुन्दर निश्चय ही सुकोमल बालुपथ पर ही चलेंगे अतः अवसाद की आशंका ही निरर्थक है। प्रेमान्ध मन उत्तर देता है, ‘निर्विवेकाः आभीर्यः’ अरी निर्विवेक गोप-बालाओ! वन में चारण हेतु जाने वाले पशु क्या सदा ही कोमल बालुका वाले मार्ग पर ही चलते हैं? गाएँ तो पशु हैं, पशु तो, स्वभावतः निर्बोध होते हैं ‘सर्वान् अविशेषेण पश्यतीति पशुः’ सबको अविशेषतः देखने वाला ही पशु है: विवेकशून्य ही सबको अविशेषतः देखता है अतः पशुवत् है। एतावता इस उक्ति में ‘पशून्’ पद का प्रयोग गाय-बछड़ों की विवेकशून्यता का ही परिचायक है; तात्पर्य कि जो गाय-बछड़े स्वयं ही विवेकशून्य हैं वे अन्य के अवसाद की चिन्ता कैसे कर सकेंगे। ‘पशून्’ शब्द बहुवचनात्मक है। भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के गाय-बछड़े अपरिगणित थे और ‘स्वान् स्वान् सहस्रोपरिसंख्ययान्वितान्’ प्रत्येक गोप बालक के सहस्राधिक गाय-बछड़े थे। आधुनिक दृष्ट्या कहा जाता है कि वृन्दावन धाम का परिमाण बहुत छोटा है; उस परिमित भूमि में श्रीकृष्ण के असंख्य एवं प्रत्येक गोप-बालक के सहस्राधिक गाय-बछड़े क्योंकर समा सकते थे? यह अत्यन्त असम्भव एवं रव-पुष्पवत् मधुर कल्पना मात्र है। परन्तु यह तर्क ही असंगत है? वृन्दावन धाम दिव्य स्थान है। दिव्य-स्थान, दिव्य-वस्तु एवं दिव्य-लीलाओं का सम्यक् विश्लेषण प्राकृत दृष्ट्या नहीं अपितु तदुचित विशिष्ट संस्कार-संस्कृत दृष्ट्या ही सम्भव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद् भा. 10/12/3