गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 320

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 11

गोपांगनाएँ व्रजधाम के दूर्वा कुश-काश, शिल एवं शर्करादि की चर्चा करती हुई भी कण्टक की चर्चा नहीं करती क्योंकि व्रजधाम में कण्टोत्पत्ति मान्य नहीं है “अझिल्लिकण्टकवनं सर्वैर्वनगुणैर्युतम्।”[1] वृन्दावन-धाम भगवत् गोचारण-भूमि है अतः वहाँ कण्टकोत्पत्ति संयत ही नहीं। अथवा, एक भाव यह भी है कि कण्टक की कल्पना भी इन प्रेम-विह्वला गोपालियों के लिए असह्य थी अतः वे उसका नाम भी नहीं लेतीं।
“नलिन सुन्दरं नाथ ते पदम्” उक्ति में “पदम्” पद एक वचनात्मक है तथापि द्वित्व का ही उपलक्षक है। भगवान् श्याम-सुन्दर, मदन-मोहन के दोनों ही चरणारविन्द समानतः सौरस्य-सौन्दर्य-माधुर्य-पूर्ण एवं स्वतः विकसित कमल से भी अधिकाधिक कोमल हैं।
गोपांगनाओं द्वारा भगवान् श्याम-सुन्दर, श्रीकृष्ण के प्रति “कान्त” एवं “नाथ” दो संबोधनों का प्रयोग किया गया है।
शिलतृणांकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति।” उक्ति में “कान्त” “नलिन सुन्दरं नाथ ते पदम्” उक्ति में “नाथ” सम्बोधन प्रयुक्त हुआ है। दोनों ही सम्बोधन विशिष्ट भाव-सूचक हैं। “नाथ” सम्बोधन से वे यह व्यक्त कर रही हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण अखिल-ब्रह्माण्ड-नायक सर्वेश्वर हैं तथापि विशेषतः व्रजेश-नन्दन, गोप-कुमार भी हैं अतः व्रज-बालाओं के “नाथ” हैं; व्रजेश-नन्दन, गोपकुमार, श्रीकृष्ण के निरावरण नलित-सुन्दर चरणारविन्दों में व्रजधाम के शिल, कुश-काश, शर्करा एवं तृणांकुरादि के गड़ जाने की आशंका से स्वभावतः ही व्रजबालाएँ विशेष संतप्त हो जाती हैं। भगवान् श्रीकृष्ण व्रजबालाओं के “कान्त” परम प्रेमास्पद हैं। “कान्त” के सन्ताप की संभावना से ही कान्ता को उत्ताप होना भी स्वाभाविक ही है। वे कह रही हैं, हे कान्त! वृन्दावन धाम के कुश-काल, शिल, तृणांकुरादि आपके निरावरण चरणारविन्दों में गड़ते होंगे, इस आशंका से ही “कलिलतां मनः नः गच्छति, कलिलतां, द्रवतां मनः नः गच्छति।” हमारा मन द्रवता को प्राप्त हो जाता है। “कलिलतां मनः कान्तगच्छति” उक्ति का विश्वनाथ चक्रवर्ती अर्थ करते हैं “कलिं कलहं लाति इति कलिलं तस्य भांवः कलिलता ताम् अर्थात् गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे श्याम सुन्दर! हमारे मन ने ही हमसे राड़ ठान रखी है। हम तो कहती हैं, हे मन! यदि श्यामसुन्दर को गोचारण के प्रसंग में वृन्दावन धाम के कुश-काल-शिल-तृणांकुरादि से कष्ट होता तो निश्चय ही वे प्रतिदिन भोर में ही गोचारण के व्याज से वृन्दावन धाम नहीं जाते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हरिवंश 2।8।23

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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