गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 310

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 10

इस लज्जा को बरबस हटाकर अपने नयनों को उनके मंगलमय मुखचन्द्र के दर्शन में प्रवृत्त किया भी तो गुरुजनों की कटूक्ति रूप विषवर्षण से मति अस्थिर हो जाती है। ‘लोकापवाद-दावानल दलिता’-होते हुए भी इन गोपांगनाओं ने ‘दुस्त्यज मार्यपथं’ दुस्त्यज आर्य-मार्ग, लोक-मर्यादा को त्याग कर भी, गुरुजन एवं स्वजनों को त्याग कर भी ‘क्वैताः स्त्रियो वनचरीव्र्यभिचारदुष्टाः’ जैसे लोकापवाद को भी अवकाश दे दिया। गोपालियां तो कह रही हैं-

‘माधवो यदि निहन्ति हन्यतां बान्धवो यदि जहाति हीयताम्।
साधवो यदि हसन्ति हस्यतां माथवः स्वयमुरीकृतो मया।’[1]

अर्थात, साधुलोग हमारे कार्यों को काले कारनामें समझ कर भले ही हँसते रहें परन्तु हम तो डंके की चोट यही कहती है कि हमने तो माधव को अंगीकार लिया है। माधव स्वयं भी यदि हमारा हनन करना चाहें तो अवश्य ही करें पर हमारे लिए तो वही एकमात्र परमाराध्य हैं। उनका श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम किसी हेतु की आकांक्षा भी नहीं रखता।

‘असुन्दरः सुन्दरशेखरोवा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।
द्वेषी मयि स्यात् करुणाम्बुधिर्वा कष्णः स एवाद्य गतिर्ममायम्।।’

अर्थात, श्रीकृष्ण सुन्दर शिरोमणि हों अथवा असुन्दर हों, सर्वगुण-सम्पनन हों अथवा सर्वथा गुण-विहीन हों, द्वेषयुक्त हों अथवा करुणानिधि हों, हम तो उन्हीं से प्रेम करते हैं। भगवत्-प्रेम में देह-गेह को भूली हुई ये व्रज-सीमन्तनी जन लोकापवाद से भयभीत नहीं होतीं। ‘श्री कृष्ण यरणाम्भोजं सत्यमेव जानताम् जगत् सत्यमसत्यं वा।’ वे तो इतना ही जानती हैं कि जगत् सत्य हो अथवा असत्य हो हमारे लिए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरण सरोरुह ही एकमात्र सत्य हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आनन्द वृन्दावन चम्पू 8/10

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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