गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 309

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 10

जैसे शीतल, अमृतमय, रश्मियुक्त चन्द्रमा अथवा कुवलयादिक भी विप्रयोग जन्य तीव्रताप से सन्तप्त प्रेमी को क्षोभक ही प्रतीत होते हैं, वैसे ही, आपके तिरोहित हो जाने के कारण आपका मंगलमय स्वरूप भी हमारे लिए अत्यन्त क्षोभप्रद सिद्ध हो रहा है क्योंकि जिस स्वरूप का विहरण हमारी अन्तरात्मा, अन्तःकरण एवम् रोक-रोम में प्रविष्ट हो चुका है उसके केवल कथामृत श्रवण से हमको केवल गम्भीर क्षोभ ही होता है।

'जिनके लिए कुल एवं लोक-मर्यादाएँ निरर्थक एवं अविचारणी हो गई हैं ऐसी कुलटाओं के द्वारा मर्यादा त्याग का कोई महत्त्व नहीं रखता। परन्तु कुलललनाओं के लिए लोक एवं मार्यादा का त्याग मरण से भी कोटि गुणाधिक दारुण दुःखप्रद है। गोपांगनाएँ पतिव्रता-शिरोमणिभूता है; लोपामुद्रा, अरुधन्ती आदि महासतियाँ भी इनके पाद-पद्म रज-संस्पर्श की सदा कामना किया करती हैं। गोपांगनाओं को अपने श्याम-सुन्दर, मदन-मोहन, गोपाल, श्रीकृष्ण-स्वरूप में अखण्ड निष्ठा है; व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्ण स्वरूप से अन्य अनन्त ऐश्वर्य सौरस्य, सौगन्ध्य-सुधा-जललनिधि, नित्य-निकुंजेश्वर मंदिराधीश्वर, साक्षात् श्रीमन्नारायणा, पूर्णतम पुरुषोत्तम स्वरूप में भी वे आकृष्ट नहीं होतीं। क्षणमात्र के लिए भी उनकी मनोवृत्ति अन्यत्र नहीं जाती।

‘दुरापजनवर्तिनी रतिपरत्रपाभूयसी,
वपुः परवशं जनुः परमिदं कुलीनान्वये।
गुरुक्तिविषवर्षणैर्मतिरतीव दौःस्थं गता,
नजीवति तथापि किं परमदुर्मरोयं जनः।।[1]

अर्थात, हे सखी! दुष्प्राप्य पुरुष में हमारा प्रेम हो गया है; जैसे रंक को चिन्तामणि दुष्प्राप्य है, वैसे ही, हमारे लिए भी श्रीकृष्णचन्द्र दुर्लभ हैं; तिस पर भी यह निगोड़ी लज्जा इतनी भीषण है कि अपने प्रियतम की ओर पलक उठाकर देखने भी नहीं देती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आनन्द वृन्दावन चम्पू 8-100

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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