गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 10गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘कृष्ण गीतावली’ में एक पद है जिसका अर्थ है कि, एकबार माता यशोदारानी श्रीकृष्णचन्द्र के मुखारबिन्द को निहारती हुई रोमांचकंटकित हो उठीं, उनके नेत्र आनन्दाश्र पूरित हो गए। माता की इस दशा को देखकर बालकृष्ण कारण पूछने लगे। माँ ने कहा, ‘देखत तव वदन कमल अति आनन्द होई’। बालकृष्ण मचलने लगे, ‘मेरे उस सुन्दर मुख को मुझको भी दिखा’। अम्बा उत्तर देती हैं, ‘मो सम अति पुण्य-पुंज बाल नहिं तोरे’ हे बालक! मेरे पुण्य-पुंज के समान तेरा पुण्य-पुंज नहीं है अतः तू उस बिम्ब को नहीं देख सकता। जिसका मैं दर्शन कर रही हूँ। तू तो अधिक से अधिक प्रतिबिम्ब का ही दर्शन कर सकता है। अस्तु, गोपांगनाएँ कह रही हैं कि जिस स्वरूप की मधुरिमा का अनुभव करने के लिए स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी गोपांगनारूप प्राप्ति हेतु तप करने के लिए तत्पर हैं जो हमारे अंतःकरण, अन्तरात्मा में, अंग-प्रत्यंग में समाविष्ट हो चुके हैं उसके अधिकाधिक सान्निध्य की आकांक्षा स्वाभाविक ही है। तदपि ‘तरोधाय इदानीं तु नः अस्मान् क्षोभयति’ अब आप तिरोहित होकर, अन्तर्धान होकर हमारे क्षोभ का ही कारण बन रहे हैं। ‘रहसि संविदो या हृदिस्पृशः रहसि इतः अन्यत्र गत्वा।’ यहाँ से अन्यत्र, वृन्दावन जाकर आप वेणुवादन करते हैं। इस वेणुवादन द्वारा आप हमारे अंग-अंग की प्रशंसा करते हुए हमारे नाम ले लेकर हमें बुलाते हैं; हमारे सम्मिलन हेतु व्याकुल होते हैं। ‘संविद् संकेते’ वेणुनाद द्वारा वाङ्मय गीतमय, रवमय, नादमय जो संकेत हैं ‘हृदि स्पृशः’ वे हृदय को स्पर्श कर लेते हैं, हृदय में संलग्न हो जाते हैं। ‘रहसि संविदः एकांतं गत्वा’-एकान्त में जाकर वेणुनाद द्वारा संकेतात्मक भंगियों, विविध प्रकार के संकेतात्मक नामों के द्वारा हमारा आह्वान एवं तद्नुकूल क्षोभक भावों का वर्णन करते हैं; वे सब हमारे हृदय को स्पर्श करते हैं, हमारे मन में क्षोभ उत्पन्न करते हैं, क्योंकि तुम हमारे प्रिय हो। यदि तुम हमारे प्रिय नहीं होते तो हमको यह सब सन्ताप नहीं होता। |