गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 307

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 10

हे सखी! यदि विधाता मनोवांछित फल प्रदान करें तो यही माँगा जाय कि उस स्वरूप को आँखों में ही बसा लूँ।’ तथापि ‘इदानां तदेव क्षोभक जायते’ इस समय तो आपका यह मनोहर स्वरूप ही हमारे क्षोभ का कारण बन रहा है। क्षण-मात्र के लिए भी जिसका वियोग असह्य है वह मधुर, मनोहर, मंगलमय स्वरूप ही इस समय, ‘तिरोधाय’ तिरोहित होकर हमारे क्षोभ का कारण बना रहा है। सर्वज्ञ सर्वेश्वर सर्व शक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही अपने मुखचन्द्र के प्रतिबिम्ब पर मुग्ध हो जाते हैं।

‘रूपरासि नृप अजिर बिहारी, नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी।’[1]

आनन्दोद्रेक से ही प्राणी स्वभावतः नाच उठता है।

‘रत्नस्थले जानुचरः कुमारः, संक्रान्तमात्मीयमुखारविन्दम्।
आदातुकामस्तदलाभखेदात् विलोक्य धात्रीवदनं रुरोद।।’[2]

मणिमय प्रांगण में घुटनों के बल चलते हुए शिशु कृष्ण उन मणियों में अपने अद्भुत प्रतिबिम्ब को देखकर मुग्ध हो उसको प्राप्त करने की इच्छा से खेद करते हुए माँ के मुख की ओर निहारते हुए रोने लगे।’ जो जितना ही प्रिय होता है उसमें सान्निध्य की भावना भी उतनी ही अधिक होती है।

‘यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोगमायाबलं दर्शयता गृहीतम्।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगेर्द्धेः, परं पदं भूषणभूषणांगम्।।’[3]

आपके मंगलमय मुखचन्द्र के लोकोत्तर सौरस्य युक्त माधुर्यमय प्रतिबिम्ब स्वरूप को देखकर स्वयं आपको ही विस्मय हो गया अतः आपके मुखचन्द्र की क्षोभकता स्वतः सिद्ध है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, उत्तर 76/8
  2. कृष्णकर्णामृत-2/54
  3. श्रीमद्. भा. 3/2/12

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
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18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
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