गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1भगवान के मंगलमय श्रीअंग ही भूषणों के भी भूषणस्वरूप हैं तथापि स्वानुग्रहवशात् तत्-तत् अलंकारों की अलंकारिता-सिद्धयर्थ ही भगवान उनको अंगीकार कर लेते हैं। उदाहरणार्थ, कौस्तुभ मणि द्वारा दीर्घकाल तक तप किये जाने पर भगवान ने उस पर अनुग्रह कर उसको अपने कण्ठ में धारण कर लिया। ‘उत्तर-मीमांसा’ ने उस पर अनुग्रह कर उसको अपने कण्ठ में धारण कर लिया। ‘उत्तर-मीमांसा’ का सिद्धान्त है कि उपासक भगवान के जिस-जिस विशिष्ट गुण-गण संयुक्त स्वरूप की उपासना करता है तत्-तत् गुण-गुण को ही फलस्वरूप प्राप्त भी करता है। एतावता भक्तों के अनुग्रहार्थ ही भगवान, तत्-तत् गुण-गण एवं अलंकारों को धारण कर लेते हैं। इसी तरह, स्वभावतः महत्तवातिशय को प्राप्त व्रजधाम भी भक्तानुग्रहार्थ ही उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है; इस उत्कर्ष से ही भक्तों को माधुर्य्यानुभव होता है यद्यपि अप्रकट प्रकाश में भी भगवान का व्रज में ब्रजस्थ शक्तियों के साथ नित्य-विहार होता है। जो उपासक व्रजधाम के इस उत्कर्ष का अधिकाधिक ध्यान, मनन एवं चिन्तन करेंगे उनके सम्पूर्ण दोषों का निवर्हण होता तथा उनमें दिव्यातिदिव्य गुणों का आधान होगा; साथ ही उनको अधिकाधिक भगवदनुग्रह एवं भगवत्सान्निध्य प्राप्त हो सकेगा। वैकुण्ठाधीश्वरी, भगवती इन्दिरा के व्रजधाम में शश्वद् आश्रयण के कारण केमुतिकन्यायतः समस्त गुणों के अधिष्ठातृ देवताओं का भी तत्तद्गुणों के साथ व्रज का सेवन सिद्ध हो जाता है। ‘यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिन्चना सवैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः।।’[1] जहाँ यत्किंचित् मात्रा में भी भक्ति विद्यमान है वहीं सम्पूर्ण गुणों के साथ देवगण विराजते हैं अस्तु, भक्त-समूहास्पद व्रज में तत्रापि भगवदाविर्भाव के कारण व्रजधाम की महिमा स्वतः ही सर्वाधिक एवं अवर्णनीय है। व्रज-वनिताएँ कह रही हैं, हे श्यामसुन्दर! दिए तले ही अँधेरा है। भक्तानुग्रहार्थ ही व्रजधाम उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है; भगवत-दर्शनाकांखा से ही व्रजधाम का आश्रयण होता है। व्रजस्थ श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन ही सर्वातिशयी महत्त्वपूर्ण है।’ व्रजवासी कहते हैं, ‘विपिन राज सीमा के बाहर हरि हूँ को न निहार’ ‘देवाधिदेव इन्द्र, वरुणादिक भी आपके दर्शन हेतु व्रजवाम में ही पधारते हैं फिर भी हम व्रजवासिनी, परमानुरागिणी, परम प्रेयसी व्रजाङ्गनाएँ आपके दर्शन से भी वंचित हैं! हे श्यामसुन्दर! क्या यह न्यायोचित है?’ सिद्धान्त है कि गंगा-जल साक्षात ब्रह्मद्रव है एतावता गंगा-जल में ज्ञान-वैराग्य-उत्पादन की क्षमता है। इसी तरह युमना-जल साक्षात् अनुराग-द्रव, प्रेम-द्रव है; प्रेम ही द्रवीभूत हो युमना-जल रूप में प्रवहमान हो रहा है एतावता यमुना-जल एवं व्रज-रज में प्रेम-संचरण की अद्भुत क्षमता मान्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद् भा. 5। 18। 12