गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 30

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 1

‘श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि’ जैसी उक्ति से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि वैकुण्ठेश्वरी इन्दिरा निरन्तर व्रजधाम में हीनभाव, दास्यभाव से ही आश्रयण कर रही हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वैुण्ठनाथ श्रीमन्नारायण विष्णु ही व्रजधाम में अवतरित हुए हैं अतः पति-परायणा, भगवती, वैकुण्ठेश्वरी इन्दिरा भी अपने प्राणनाथ का अनुगमन करती हुई व्रजधाम की श्रीवृद्धि हेतु व्रज का निरन्तर आश्रयण कर रही हैं। परन्तु ‘श्रयते’ पद, आत्मने पद का प्रयोग ‘स्वात्म सौभाग्यातिशयं सूचयित’ अपने ही सौभाग्यातिशय का ही सूचक है यतः आश्रयण क्रिया का फल स्वात्मगामी है। अस्तु, वैकुण्ठेश्वरी भगवती इन्दिरा का व्रजधाम में सतत आश्रयण व्रजधाम की श्रीवृद्धि का हेतु न होकर सौभाग्यातिशय के आविर्भाव हेतु ही है। गीत के आरम्भ में प्रयुक्त ‘जयति’ पद प्रयोग की भी सार्थकता इसी अर्थ में सम्भव है।

जिस व्रजधाम में प्रवेश करने मात्र से ही ‘यत्र प्रविष्टः सकलोऽपि जन्तुः आनन्दसच्चिद्धनतामुपैति’ प्राणी मात्र सच्चिदानन्दघन्त्व को प्राप्त हो जाता है वह व्रजधाम स्वयं आनन्दघनस्वरूप है इसमें किसी प्रकार की भी विप्रतिपत्ति संभव नहीं। व्रजधाम का महत्त्वातिशय स्वभावतः सिद्ध है अतः इस उत्कर्ष-वृद्धि से व्रज का महत्त्व नहीं बढ़ता अपितु उन गुणगणों का गुणत्व ही प्रत्यक्ष हो उठता है। अस्तु, जैसे निरतिशय बृहत् स्वरूप ब्रह्म भी जीवानुग्रहार्थ षड्भग एवं षड्भगोपलक्षित अनन्तानन्त कल्याणगुण-गुणों को अंगीकार कर लेते हैं, वैसे ही स्वभावतः आनन्दघनस्वरूप व्रजधाम भी भक्तानुग्रहार्थ ही उत्कर्षरूप गुण को प्राप्त हो रहा है। ‘ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीगना।’[1] अर्थात जिनमें ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री एवं ऐश्वर्य ये छहों गुण सम्पूर्णतः विद्यमान हों वे ही भगवान हैं। संपूर्ण गुणगणों का प्रयोजन स्वाश्रय में आनन्दातिशय एवं महत्तवातिशय का आधान तथा सर्व-प्रकार के अनर्थ का निवर्हण ही है। भगवान निरतिशय ब्रह्मस्वरूप हैं ‘निरतिशयं बृहत् ब्रह्म’ अनन्त-पद-समभिव्याहृत, अनन्त ब्रह्म हैं अतः गुण-गणों द्वारा उनमें महत्तवातिशय एवं आनन्दातिशय का आधान अथवा अनर्थ का निवर्हण होगा यह कल्पना भी सर्वथा निर्मूल है। अनन्त कोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत ब्रह्मदि देवशिरोमणियों को प्राप्त आनन्द भी इस अनन्त-आनन्द-सिन्धु का बिन्दु-मात्र है; इस बिन्दु का उद्गम स्थान अचिन्त्य, अनन्त, ब्रह्मानन्द-सुधा-सिन्धु, परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र ही हैं। भगवान स्वयं ही कहते हैं, ‘मा भजन्ति गुणाः सर्वे निर्गुणं निरपेक्षम्।’ अर्थात मैं निर्गुण निरपेक्ष हूँ, गुण-गुण अपनी गुणत्वसिद्धि हेतु ही मुझे भजते रहते हैं। इसी तरह ‘भूषणानां-भूषणानि अंगानि यस्य सः’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णुपुराण 6। 5। 74।

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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