गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 9भगवत-कथामृत से वेराग्य का भी सम्पादन होता है। वैराग्य का अर्थ है दोषों का त्याग; दोष दो प्रकार के होते हैं; एक का संस्कार एवं दूसरे का त्याग किया जाता है। जिन रागादि का संस्कार कर उनको भगवत भक्ति के अनुकूल बना लिया जाता है वे ज्ञान-दृष्टि से भक्त के लिए उपयोगी बन जाते हैं अतः उनका सम्पादन किया जाता है। ‘तावद रागादयः स्तेनास्तावत् कारागृहं गृहम्। अर्थात, जब तक भगवान् श्रीकृष्ण में राग नहीं होता तभी तक विभिन्न रागादि रूप चोर आत्मा के अचिन्तय, अनन्त रूप धन को चुराते हैं; स्वगृह ही कारागृह रूप बन्धन बन जाता है। कृष्णानुरागी होने पर वहीराग वैराग्य हो जाता है, वह घर ही आनन्दप्रद हो जाता है। अन्य सम्पूर्ण गृह, सत्त-रज-तम-प्रधान त्रिगुणात्मक होते हैं, केवलमात्र भागवत-आवास ही निर्गुण होता है। संसार-विषयक रागादिक का संस्कार कर उनको भगवद विषयक बना लेना ही भक्ति है; भगवत-भक्ति के प्रतिकूल विषयों का त्याग हो वैराग्य है अस्तु, अस्तु, भगवत्-कथामृत श्रवण से वैराग्य-सम्पादन होता है। ‘कल्मषापहम्’ भगवत कथामृत सम्पूर्ण कल्पषों का नाश करने वाला है। संसार का मूलभूत हेतु-शुभाशुभ कर्म ही कल्मष है; भगवत-कथामृत श्रवण से सम्पूर्ण संसारिक कर्म-जाल का हनन हो जाता है। दिव्य धर्म ही सम्पूर्ण कल्मष हनन में समर्थ है। सांख्य- वादियों के अनुसार ‘कमशुक्लाकृष्णं योगिनः’[2] धर्म कर्म भी अनेक प्रकार के हैं; शुक्ल, कृष्ण, शुक्ल-कृष्ण तथा अशुक्ल-अकृष्ण। पापादि कर्म कृष्ण हैं; हिंसादि दोषयुक्त अश्वमेधादि कर्म शुक्ल-कृष्ण कर्म हैं; जपादि शुक्ल कर्म है; समाधि जन्य कर्म अशुक्ल- अकृष्ण कर्म है। वेदान्तियों के सिद्धान्तानुसार कर्माकर्म निर्णय में श्रुति ही प्रमाण है। ‘अशुद्ध मिति चेन्न शब्दात’[3] अतः वेद-विहित सम्पूर्ण कर्म शुद्ध तथा वेद-विरुद्ध सम्पूर्ण कर्म अशुद्ध है। ‘वैदिकं कर्म अशुद्धं हिंसादि दोष युक्तत्त्वात् इति चेन्न’,। |