गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 9श्री रामानुजाचार्य कहते हैं:- ‘हिंसनीयं प्रति अननुग्राहकत्व विशिष्ट प्राणवियोगानुकूल व्यापारत्वं हिंसात्वम्। अर्थात वही हिंसा है जो हिंसनीय का अननुग्राहक प्राण वियोगानुकूल वयापार है। तात्पर्य कि हिंसनीय का अनुग्रह रहित प्राण-वियोग व्यापार ही हिंसा है। यज्ञादि में हिंसनीयननुग्राहक प्राण-वियोगानुकूल व्यापार नहीं है अतः वहाँ हिंसा नहीं अपितु रक्षा ही होती है ‘हिरण्यशरीरः ऊर्ध्वा स्वर्ग लोकमेति’[1] विधि-पूर्वक जिस पशु का आलम्भन होता है वह पशु हिरण्य-शरीर होकर ज्योतिर्मय शरीर धारण कर लेता है भगवत् कथामृत से सम्पूर्ण कल्मषों का हनन एवं दिव्य धर्म का आर्जन होता है। अतः भगवत्-कथामृत ‘कल्मषापहम्’ दिव्य धर्मयुक्त है। ‘श्रीमदाततं’ ‘श्रीमदं’ अर्थात नित्य श्री युक्त भगवत-कथामृत ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, धर्म, यश एवं श्री षड् भागों की समग्रता से युक्त है अतः ‘श्रीमदं’ है। ‘आततं’ भगवत-स्वरूप होने के कारण भगवत्-कथामृत ‘आततं’ है; कथामृत यश रूप ऐश्वर्य से युक्त है, ‘कविभिरीड़ितं’ कवियों द्वारा संस्तवित गुण-गान ही यश है; अतः धर्म-ऐश्वर्य युक्त होने के कारण भगवत्-कथामृत भी भगवत्-स्वरूप ही है; जैसे भगवत्-स्वरूप सर्वान्तरात्मा एवं सर्वव्यापक है वैसे ही भगवत्-कथामृत भी सर्वव्यापक है। गोपाङनाएँ कह रही हैं, हे प्रभो! आप तो अन्तर्धान होकर हमको अपने विप्रयोग-जन्य तीव्र-ताप से भस्म कर रहे हैं परन्तु आपकी यह कथा जो हमारे खेद का शमन करती है कदापि तिरोहित नहीं होती। विज्ञ जन कहते हैं स्वप्रकाश ब्रह्म में भी वह आनन्द नहीं जो भगवत्-कथामृत में है। इसमें एक और गुण है:- समुद्र से प्राप्त देव-भोग्य अमृत रोगादि दोष-जन्य सन्तापों का हनन करने वाला है, मोक्ष रूप अमृत संसार-सन्ताप का नाश करने वाला है, परन्तु यह भगवत्-कथामृत-रोगादि-दोष– जन्य त्रास एवं संसार-संताप जन्य क्लेश, दोनों का ही समूल उन्मूल करने वाला है, साथ ही आपके विप्रयोग-जन्य तीव्र ताप का भी शमन कर देता है अतः हम मरणादपि कोटि गुणाधिक ताप को भोगते हुए भी मर नहीं पातीं। हे श्याम-सुन्दर! हे सखे! जैसे चन्द्रमा भी विरही-जनों को दग्ध ही करता है, ‘विष-संयुत कर निकर पसारी, जारत विरह वंत नर नारी।’ किंवा ‘कुबलय-बिपिन कुन्तबन सरिसा’[3] जैसे साक्षात् पद्मा का अलाम, शीतल, मंजुल, कोमल कमल भी विरही जनों के सन्ताप का ही कारण बनता है अथवा जैसे वारिद में दामिनी का अवद्योतन अत्यन्त चमत्कारपूर्ण होते हुए भी विरही को ‘वारिद तप्त तेल जनु वरसा’ की ही अनुभूति होती है वैसे ही, आपका यह कथामृत भी विरह व्याकुला, विरह-विदग्धा हम संतप्ता गोपाङनाओं के लिये संतापकारी ही है क्योंकि इस कथामृत के कारण ही हम दारुण दुःख सहती हुई भी कलंक रूप इस जीवन को ढो रही हैं। अतः हे सखे! हम पर अनुग्रह कर दर्शन दो! |