गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 8‘अर्थात अति पातकी प्राणी भी एक निमिष मात्र के लिए भी अच्युत का ध्यान कर ले तो वह अत्यन्त उत्कृष्ट एवं पतितों का उद्धार करने वाला हो जाता है। जिसका अन्तःकरण जितना ही शुद्ध है वह उतने ही अल्प आयास से अपने हृदय में भगवत-स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है। भगवत-स्वरूप प्राकट्य, भगवत-शुद्धता से भगवत-साक्षात्कार बुद्धि-शुद्धि सापेक्ष्य है। एकाग्रता से चित्त शुद्धि होती है; शुद्धता से भगवत-स्वरूप माधुर्य अत्यन्त दिव्य रूप में प्रकट होता है। जैसे अयस्कान्तमणि शुद्धलौह का आकर्षण कर लेती है अथवा जैसे सूर्य-चन्द्रमा की स्थिति विशेष से ही राहु का दर्शन होता है अन्यथा नहीं, वैसे ही आत्माराम चित्ताकर्षत्व भगवान् का गुण है; आत्मारामों के भी चित्त का आकर्षण कर लेते हैं। ‘स्वसुखेनैवनिभृतं परिपूर्णं चेतोयस्यासौ स्वसुखनिभृतचेताः तद्व्युदस्तान्य-भावः तेनैव व्युदस्तः अन्यपदार्थस्य भावः सत्तायेनासौ।’ अर्थात, जिसका चित्त स्वरूप भूत परमानन्द सुधा-सिन्धु से परिपूरित है अतएव जिसकी बुद्धि में तद्भिन्न किसी वस्तु में भावना उद्बुद्ध ही नहीं होती ऐसे व्यास नन्दन भगवान् शुकदेव का मन भी ध्यान करते ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कंद में आकृष्ट हो गया; आत्म-काम, पूर्णकाम, परम- निष्काम, आत्माराम भगवान् शुकदेव का चित्त आनन्दकन्द, सच्चिदानन्दघन, पूर्णतम पुरुषोत्तम, परात्पर प्रभु भगवान श्रीकृष्णचन्द्र स्वरूप में बलात् आकृष्ट हो गया। अस्तु, भगवत् चिन्तन से ही भगवत्-स्वरूप में आकर्षण एवं राग होता है। ‘द्रवते यस्य चित्तं’ वाक् गद्गद् हो जाती है; नेत्र आनंदाश्रु परिपूरित हो जाते हैं तथा अंग-अंग रोमांच-कंटकित हो जाता हैं। क्रमशः प्रेमोद्रेक-जन्य विशेष शैथिल्य के कारण चित्त ध्येय-स्वरूप को ग्रहण करने में भी विवश हो जाता है। ‘परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित्त अहमित बिसराई।।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, अयोध्या 240