गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 287

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 8

‘सच्चिन्त्तयेद् भगवतश्चरणारविन्दम् वज्त्राङ्कुशध्वजसरोरुहलांछनाढ्यम्।
उत्तुङ्गरक्तविलसन्नखचक्रवालज्योत्स्नाभिराहतमहद्धृदयान्धकारम्।।’[1]

विषयों का ध्यान करते-करते प्राणी का जीवन विषयों में ही फँसने लगता है।

‘ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
सङात्संजायतेकामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।62।।’[2]

विषयों के संग से ही उनमें राग उद्भूत होता है; श्रेष्ठातिश्रेष्ठ विषय-सामग्री की उपस्थिति मात्र से उसमें स्वभावतः राग नहीं होता; तत् विषय के बारम्बार चिन्तन से ही उनमें राग प्रादुर्भूत होता है। जैसे विषयों के चिन्तन से उसमें राग उत्पन्न होने लगता है वैसे ही निरन्तर भगवदानुसंधान से ‘मामनुस्मरत- श्चित्तं’[3]भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, व्रजेन्द्र-नन्दन, गोपाल के दिव्य श्रीविग्रह के निरन्तर चिन्तन से प्राणी भगवत स्वरूप में आसक्त हो जाता है। एतावता जिस किसी भावना से एकबार भी भगवादनुसंधान में प्रवृत्त होने पर भगवत् स्वरूप की महिमा से मन उसी में विलीन होने लगता है। भगवत्-चिन्तन से ही जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तरों की अनन्त पापराशि भी तत्क्षण विनष्ट हो जाती है।

‘अतिपातकयुक्तोपि ध्यायन्निमिषमच्युतम्।
भूयस्तपस्वी भवति पंक्तिपावनपावनः।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीम0भा0 3/28/21
  2. श्रीम0भा0 गी0 2/62
  3. श्रीम0भा0 11/14/27

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