गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 8अर्थात, जो मेरे दिव्य मंगलमय पवित्र चरित्रों का दिव्य गुण-गुणों का एवं मधुर-मनोहर-मंगलमयी मूर्ति का निरंतर श्रवण, मननं एवं चिन्तन करते हैं, परस्पर अन्योन्य सम्बोधन करते है- ‘तेषामेवानुकंपार्थ महमज्ञानजं तमः। उनके अनुकम्पार्थ उनके हृदय में स्वतः मैं ही ज्ञान-दीप को प्रज्वलित कर आत्मस्वरूप का सुस्पष्ट प्रकाशन कर देता हूँ। अनायास अन्वय व्यतिरेक आदि युक्तियों से नाना प्रकार के प्रयास के बिना ही निजानुग्रहवशात् स्व-स्वरूप का पूर्ण प्राकट्य कर देता हूँ। गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैः- ‘सोई जानइ जेहि देहु जनाई। जानन तुम्हहि तुम्हहिं होई जाई ।।’[2] ‘श्रीमद्भागवत’ के एकादश स्कन्ध में भगवान् के निराकार, निर्विकार, निर्गुण रूप का वर्णन अनेक स्थलों पर हुआ है। ‘तत्रोपाय सहस्राणामयं भगवतोदितः’[3] निर्गुण, निर्विकार, निराकार, परात्पर प्रभु को जानने के लिए चित्त की एकाग्रता अत्यन्त आवश्यक है; चांचल्य-युक्त चित्त से वस्तु-तल को समझाना असम्भव है; चित्त की एकाग्रता के अनेकानेक उपाय शास्त्रों में कहे गये हैं। तथापि भगवद्ध्यानरूप उपाय का भगवान् ने स्वमुख से निरूपण किया है। अतः भगवद्ध्यान ही साध्य भी हैं; जो लोग भगवद्ध्यान को साधन-रूप से अपनाते हैं उनको बीच में ही वह ध्यान छोड़ना पड़ जाता है। ‘तच्चत्यक्तवा मदारोहो न किंचिदपि चिंतयेत्।[4] भगवद्-भक्त के लिये भगवद्-ध्यान साधन नहीं अपितु साध्य ही है अतः कभी त्याज्य नहीं होता। भगवान् कपिलदेव ने देवहूति को निर्गुण निर्विकार, निराकार, ब्रह्म का उपदेश देते हुए भी सगुण, साकार, सच्चिदानन्द-घन भगवान् का ध्यान करने का ही आदेश दिया। भगवान् कपिलदेव द्वारा कथित भगवान् का नख-शिख ध्यान लगभग 19-20 श्लाकों में है, जिनका प्रथम श्लोक निम्नांकित है। |