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गोपी गीत -करपात्री महाराज
गोपी गीत 8
‘सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेबिज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम्।
गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान् प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः।।’[1]
अर्थात, हे धाता! यदि आपका यह मधुर मनोहर मंगलमय विशुद्ध सत्त्वात्मक श्रीविग्रह प्रकट न होता तो अपरोक्ष-साक्षात्कार-शून्य विज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति न होती। अपरोक्त साक्षात्कार से ही सम्पूर्ण भ्रान्ति एवं अज्ञान की निवृत्ति सम्भव है; गुड़ खाने से ही गुड़ की मिठास का अनुभव होता है। अनेकानेक विज्ञजनों द्वारा प्रतिपादित होने पर भी गुड़ न खाने के लिए उसकी मिठास का अनुभव सम्भव नहीं होता वैसे ही, श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित वेदों के महातात्पर्य, परात्पर, परब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार उनके विशुद्ध सत्त्वात्मक लीला-विग्रह के प्राकट्य पर ही सम्भव है।
‘अज्ञानभिद्विज्ञानम् अज्ञानंभिनत्ति इति’--- अज्ञान को भेद करने वाला विज्ञान ‘जगति मार्जनम् आप नाशं प्राप्तं भवेत्’ ही जगत् से लुप्त हो जाता यदि लीला विग्रह रूप प्राकट्य द्वारा आपका अपरोक्ष साक्षात्कार न हुआ होता। ‘प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः गुण प्रकाशैरनु मोयते भवान्’ गुण-प्रकाश से आपका अनुमान हो जाता है। ‘शब्दायो विषया येन भासन्ते तत् किमपि वस्तु विद्यते’ शब्द’-स्पर्श-रूप-रस-गंधादिविषय जिस ज्ञान से, जिस भान से प्रकासित होते हैं वह प्रमातृ, प्रमाण, प्रमेय-व्यापार सम्भव होता है। ‘यस्यकृते इन्द्रियै मनसा बुद्धया च शब्दादयो विषया अवद्योत्यन्ते’ भान कोई वस्तु है वह संघात से अतिरिक्त देहइन्द्रिय मन बुद्धि से भिन्न जागरण-स्वप्न-सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से पृथक है।
‘संघातस्य परार्थत्वात्’ संघात स्वविलक्षण किसी असंहत चेतन के लिए हुआ करता है। इस प्रकार से समझा जाता है तथापि यह भी अनुमान-प्रमाण ही हुआ। अतः अज्ञान को भेद करने वाला विज्ञान स्वतः विशुद्ध सत्त्वात्मक लीलाविग्रह, आनन्दकन्द, परमानन्द श्रीकृष्णचन्द्र स्वरूप में प्रकट हो गया।
‘मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्नि च।।’[2]
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